"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) :- भाग 35 (पैतीस) : मेरी फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस की नोकरी...(सत्य घटनाओ पर आधारित : 1966-67 के दरम्यान घटी हुयी घटनाये.) (Part One).

           मेरी यादें  (Meri Yaden) :-  भाग 35 (पैतीस) : मेरी फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस की नोकरी...
(सत्य घटनाओ पर आधारित : 1966-67 के दरम्यान घटी हुयी घटनाये.) (Part One).
                  प्यारे पाठको, पिछले भागमे मेरी यादों के माध्यम से हमने देखा की, मुझे फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस मे टायपिस्ट के पद पर नोकरी मिल गयी थी. मै नोकरी के लिये नजदिकी रिस्तेदार भाई के ही रूम पर रहने लगा था. बदले मे मै उन्हे कुछ रूपये देता था. उसके बाद की घटनाये हम अब मेरी यादों के माध्यम से आगे देखेंगे. .....
             "एम" फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस मे मुझे "टायपिस्ट" का काम करना था. इस ऑफिस मे हमारे हेड ऑफिस वालो के मालिकाना अधिकारिता मे की फिल्मो की प्रिंटे महाराष्ट्र और एम पी के सिनेमा थियेटरो मे काँट्रॅक्ट पर कुछ दिन चलाने के लिये भेजी जाती थी. थिएटर  मालिको से पाच, सात, दस दिन या फिर आगे पिक्चर चलती रहे तो आगे जब तक थियेटर वालो को प्राफिट मिलते रहता था तब तक पिक्चर चलते रहती. फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस इसके बदले मे पिक्चर बुकींग मे से चालीस पचास परसेंट तक रकम थियेटर मालिकोसे चार्ज करते रहते थे. जिस थियेटरो मे हमारी प्रिंट भेजी जाती थी. उस प्रिंट के साथ हमारे ऑफिस का  प्रतिनिधि भेजा जाता था. वह प्रतिनिधि हर दिन पिक्चर का कलेक्शन रिपोर्ट हमारे ऑफिस भेजता था. उस रिपोर्ट के आधार पर ही पिक्चर उतारना या कंटिन्यु रखना, इसके बारेमे हमारे मॅनेजर डिसीजन लेते थे. हर दिन के बुकींग मे से पेमेंट वसूली करने पर विशेष ख्याल दिया जाता था और इसी से संबंधित होने वाला पत्र व्यवहार मुझे टाईप करना पडता था. मै उस समय इन सब बातो से परिचित नहीं था. मै गाँव से आया हुआ था. शुरू मे उनके पत्र व्यवहार की भाषा मेरे पल्ले नहीं पड रही थी. उसमे लेटर की अंग्रेजी भाषा. लेटर ड्राफ्टिंग मे की मेरी गलतीयाँ देखने पर मॅनेजर साहब बार बार मेरे पर भडकते रहते थे. उनकी बाते सुनने के शिवाय मेरे पास कोई चारा भी नही था. मुझे बडे मुश्किल से यह नोकरी मिली थी. उसमे भी बिरादरी के मॅनेजर साहब को मै निचे देखने नहीं लगा सकता था. सो गलतीयाँ कमसे कम हो, यही मेरे प्रयत्न  रहते थे.
             फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस मे नोकरी करने से मुझे कुछ फायदे भी हुये थे. हमारे ऑफिस की फिल्मे जहां भी दिखायी जाती थी उन थियेटर मे मुझे और मेरे साथी दोस्त मेहमानो के लिये फ्री पास मिल जाती थी. इस कारण मेरा पिक्चर तिकीट पर का खर्च बच गया था. उसी तरह बेरोजगार युवक लोग जाॅब के लिये मुझसे परिचय बढाते हुये नजदिक आने शुरू हो गये थे. वास्तविक मेरे हातमे कुछ भी नहीं था. लेकिन मेरा टेबल मॅनेजर साहब के केबिन मे होने से मै उनकी शिफारस (मॅनेजर से) कर सकता हूँ, इस गलत फहमी मे जाॅब मांगने वाले मेरा भाव बढा रहे थे. तिन महिने मे मैने फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस के पत्र व्यवहार के बारेमे बहूत कुछ जान लिया था. उस वक्त  इंग्लिश टायपिंग की मेरी स्पिड टाॅप पर थी. मै टाईप रायटर के की बोर्ड को बगैरे देखे लेटर टाईप करने मे माहीर बन गया था. ऑफिशियल लँग्वेज मुझे इसी ऑफिस मे सिखने को मिली. "एक बार फिर कोशिश करके तो देख ले" इस विचारधारा से मैने दोस्ती कर लियी थी.
           इस तरह मेरा नोकरी का प्रश्न कुछ हल सा हो गया था. अब दुसरा प्रश्न मुझे सोने नहीं दे रहा था. मेरी काॅलेज की पढाई बंद पड गयी थी. यह बात मुझे बहूत ही खटक रही थी. मेरा  आत्मा मुझे रह रहकर आनेवाले भविष्य की ओर देखने को इंटिमेट कर रहा था. बडे बडे सपने देखते रहने की मेरी आदत से प्रेझेंट मे मिली उपलब्धी मुझे  जल्दी ही निरस लगने लगती थी. उसी निरसता ने बंद पडे मेरे पढाई को, पूरा करने की ओर मुझे मोड दिया.                                      मैने  "पार्ट टू" की एग्झाम एक्स्टर्नल तरिके से देने के बारेमे मॅनेजर साहाब के सामने अर्जी रख दी. उन्होने मेरी अर्जी पढकर मुझे जता दिया की, "तुम तुम्हारी जबाबदारी मे परिक्षा दे सकते हो. हमे उससे कोई लेना देना नहीं रहेगा,पगारी छुट्टी देने का हमारे ऑफिस मे रिवाज नहीं है." मै जो समझने का था वह समझ गया.  मैने परिक्षा की बात,ऑफिस मे फिर कभी नहीं निकाली. लेकिन नागपूर युनिव्हर्सिटी मे "पार्ट टू" मार्च एप्रिल की परिक्षा का फाॅर्म भरकर भेज दिया और गाईड्स लाकर स्टडी भी कर रहा था. 
To be continued........
धन्यवाद. 
       श्री रामनारायणसिंह खनवे. 
              परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)


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