"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) :- भाग 13 : (सत्य घटनाओ पर आधारित) : मेरी गाँव के स्कूल की पढाई.......(यादे बचपन की : 1954 से 57 तक का समय).

   गाँव के स्कूल की मेरी पढाई.......

        प्यारे पाठको, मेरे बचपन की यादो मे आज हमे याद आ रहे है गाँव के स्कूल की पढाई के वो दिन, जो  मेरे लिये बहूतही यादगार बने हुये है. उन दिनो की याद आते ही मुझे बडे ही आनंद की अनुभूती होते रहती है.

        मेरी उम्र सात साल की होनेपर पिताजी ने गाँव के मराठी स्कूल मे मेरा पहली कक्षा मे प्रवेश कर दिया गया था. उस जमाने मे मुझे स्कूल जानेकी बहूतही उत्सुकता थी. उस समय मेरे टिचर के लडके के तरफ स्कुल की घंटा बजानेका काम दिया गया था. मुझे स्कूल जाने की जल्दी होनेसे मै उनके लडके को (भाऊको) जल्दी से स्कुल की घंटा बजाने की रट लगाते रहता था. परंतु घंटा स्कूल के समय पर ही बजाये जाती थी.  कक्षा मे मै बाकी बच्चों से टॅलेंटेड होनेसे टिचर हर जगह मुझे ही आगे किया करते थे.  कोई बच्चा अगर स्कूल मे नही आता हो तो उस बच्चे के घर जाकर उसका हात पकडकर स्कूल लाने के अधिकार टिचर ने मुझे उस समय दिये हुये थे. मै इस कामके लिये और दो बच्चों की साथ लेकर इस कामको बखुबी निभा लेता था. कक्षा में कुल मिलाकर दस पंधरा ही लडके हुआ करते थे. उनमे से आधे बच्चे हरदम स्कूल आनेको घबराते रहते थे. वे स्कूल तो आते ही नही थे और घरपर भी ठहरते नही थे. उनके छुपनेकी जगह मुझे मालूम थी. नाले की कगार मे छुपे बैठे उन बच्चों को हम लोग धुंडकर ही दम लेते थे. 

          इस तरह मेरे स्कुल के पढाई के दिन आगे आगे बढ रहे थे. दो साल बाद जब मै तिसरी कक्षामे पहूँचा,  तो उस समय हम बच्चों को खाना खानेके बाद रातके समय कंदिल लेकर पढाई करने स्कूल जाना होता था.  तबसे घर छोडकर रातमे बाहर सोनेकी आदत मुझे पडने लगी थी. इस तरह मै जब कक्षा चार मे पहूंचा तब मेरी कक्षामे सिर्फ नऊ बच्चे थे. दो लडकियाॅ और सात लडके. दोनो लडकियो के शादी के संबंध उनके परिवार के लोगोंने पक्के भी कर दिये थे. हमारी अंतीम परिक्षा सामान्य बोर्ड की थी. सो पास वाले बडे गाँव मे परिक्षा के लिये हमे उस समय जाना पडा था. परिक्षा मे हम नऊ बच्चो ने अपने दिमाख से पेपर लिखकर दिये थे और बोर्ड के परिक्षामे हम सब नऊ बच्चे फूलपास हो गये थे. उस बोर्ड परिक्षा के सेंटर मे हमारे स्कूल का रिझल्ट सबसे आगे आया था. इस कारण हमारे स्कूल टिचर का सन्मान भी किया गया था. हम बच्चों को उस समय बहूतही खुशी हुयी थी.  जब हम सब नऊ बच्चे गाँव आये, तब लढाई मे से जीत हासिल करके आये जैसे गाँव मे आये थे. सब लोग हमे सन्मान से देख रहे थे. क्योंकी गाँवो मे कक्षा चार भी पास कर लेना उस समय बहूत बडी बात होती थी. 

                                                           To be continued........ 

                          धन्यवाद.                       

        श्री रामनारायणसिंह खनवे         

                परसापूर. (महाराष्ट्र).

(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)


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