"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) :- भाग 22 (बाइस) : (सत्य घटनाओ पर आधारित): मेरे बचपन की बहिरम यात्रायें ... (1955 से 60 के दरम्यान की घटनाये) (Part One)

 मेरे बचपन की बहिरम यात्रायें ...  

(1955 से 60 के दरम्यान की घटनाये)  

 (Part One)

           प्यारे पाठको, अब तक मेरी यादों के माध्यम से हमने देखा की, मैनै हायस्कूल की पढाई करके एस एस सी बोर्ड की परिक्षा अच्छे मार्को से पास कर लियी थी. मेरे घरके सब लोग उस समय खुश हुये थे और मेरा काॅन्फिडेन्स भी बढने लगा था. आगे मुझे काॅलेज की पढाई  करनी थी और साथ साथ सर्व्हिस भी ढुंढनी थी. परंतु इसमे मेरे उम्र की समस्या आने वाली थी. क्योंकी उस समय मेरी उम्र सोलाह सतरह साल के दरम्यान की ही होगी. मैने बडे भाई के काॅलेज मे प्रि मे दाखिला ले लिया था. बडे भाई ने प्रि युनिव्हर्सिटी पास करने पर उन्होने पार्ट वन मे दाखिला ले लिया था. 

           प्यारे पाठको, आगे की घटनाये देखने से पहले हमे कुछ महत्त्वपूर्ण और मनोरंजक घटनाये याद आ रही है. उनको याद किये बगैर अपना यह यादों का सिलसिला अधुरा ही रहेगा.  इन घटनावो का घटित काल 1955-60 के दरम्यान का था. इस लिये हम पहले देखेंगे  मनोरंजन से भरी हुयी बहिरम यात्रा की यादे.

            मेरे बचपन मे पिताजी बहिरम यात्रा के दुकानदारो से टॅक्स वसूली के काँट्रॅक्ट भी लेते रहते थे. मै उनके साथ छोटा होने पर भी बहिरम यात्रा मे मुक्कामी रहता था. दिन भर पिताजी टॅक्स वसूली का काम करते थे और आराम के लिये वहां पर हम लोगोंकी राहूटी (सोना, बैठना, खाना खाने के लिये) लगी रहती थी.  खाना खाने के बाद हम लोग टुरिंग टाॅकिज मे फिल्म देखने चले जाते थे और रातमे बारा एक के दरम्यान राहुटी पर आकर सोते रहते थे. इन संस्कारो ने ही मुझे बहिरम यात्रा का अट्रॅक्शन बनाये रखने मे मदत कियी.

            हमारे गाँव से उस जमाने मे तिन या चार ही बैल गाडीया बहिरम यात्रा के लिये जाते रहती थी. बडे जमिन जुमले वाले अमीर लोग ही अपनी अपनी बैल गाडी से बहिरम यात्रा के लिये निकल पडते थे. साथ मे बैलोके लिये चारा खळगुस भी रहता था. बैल गाडी का चालक और घरके चार पाच लोग  बहिरम यात्रा के लिये दोपहर बारा एक के दरम्यान बैल गाडी  से निकल पडते थे. हर बैल गाडी को सुरक्षा के लिये बांस से बनाया हुआ "तट्टा" फिट किया रहता था. जिससे बैठने वाले धुप पानी से भी बच जाते थे. शाम चार पाँच के दरम्यान हमारे बैल गाडी का पहला पडाव खरपी नामके गाँव के पास होता था. वहां से थोडा विश्राम के बाद बहिरम यात्रा के लिये निकल पडते थे. शाम सात के दरम्यान यात्रा मे पहूँचने पर सर्व प्रथम जगह धुंडकर वहां पर डेरा डालने पडता था. फिर मुक्काम के हिसाब से सब व्यवस्था करनी पडती थी. 

           पिताजी बहिरम हर साल  जाते थे. सबसे पहले तो बात यह थी की, वहां पर बहिरम बाबा का मंदीर बना है. भगवान के दर्शन भी हो जाते है. सालभर गाँव मे रहकर इंसान कंटाल जाने से उसे  मनोरंजन के लिये घर से बाहर कोई स्थल की आवश्यकता पडना ही है. साथ मे आवश्यक चिजो की खरेदी और मनोरंजन भी हो जाये ऐसा स्थल हमारे गाँव से सिर्फ पंधरा कोस के दूरी पर था. फिर क्यों कोई यात्रा के बगैर रहे. इसी कारण उस जमाने मे बहिरम यात्रा का महत्व विशेष होता था.

     यात्रा मे मनोरंजन के लिये चार- पाँच टुरिंग टाॅकिजे महिनेभर के लिये डेरा डाले रहती थी. उन थियेटरो मे रात भर शो दिखाना शुरू रहता था. उस जमाने मे की रिलीज हुयी नयी फिल्मे बहिरम यात्रा मे एक ही रातमे दर्शको को देखने मिल जाती थी. मेरी यादों मे मुझे याद आ रही है वे फिल्मे जिन्होने उस समय रेकाॅर्ड तोडे थे. जैसा की "मदर इंडिया, धुल का फूल, मै चुप रहूँगी, पैगाम, घराना, घुंगट, गंगा जमना, जिस देश मे गंगा बहती है, संपूर्ण रामायण" ये सब फिल्मे यात्रा मे देखने मिल जाती थी. फिल्मे बहिरम यात्रा की सबसे बडा आकर्षण रहती थी. हम भी दो तिन दिनोमे कुछ फिल्मे देख ही लेते थे.

          दिनमे माँ और पिताजी उनके घर गृहस्थी के लिये आवश्यक वस्तूवो की खरेदी कर लेते थे. पिताजी बैलोके लिये झुले, कसाटी, घुंगरूओ के जोड लेने मे इंटरेस्टटेड तो माँ घरमे लगनेवाली तांबे पितल की चिजे धुंडकर खरिदती रहती थी और मै और भाई बहने नये नये खिलोने धुंडते रहते थे. यात्रामे एक दो और बाते लोगोंको अट्रॅक्ट करती रहती थी वे थे मौत का कुँआ और नाँनव्हेज वालो की हंडी. 

       प्यारे पाठको, यह सब बाते भूतकालीन हो गयी है. अब बहिरम यात्रा का स्वरूप बहूत सा बदला हुआ लगता है. आज भी बहिरम की यात्रा उसी समय मे भरती है. परंतु मेरे बचपन मे   यात्रा का जो आनंद मुझे मिला था वह फिर कभी भी नही मिल सकेगा. अनासायास ही मेरे मुँह से निकल पडता है, "कोई लौटा दे मुझे, मेरे प्यारे प्यारे वे दिन"........

                                            To be continued.....

                              धन्यवाद. 

                       श्री रामनारायणसिंह खनवे.

                           परसापूर. (महाराष्ट्र)🙏 🙏 🙏

(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.) 






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