प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, छटीके अक्षर, ब्रम्हा की रेघ का उस जमाने मे नये जन्मे बच्चों के जिवन मे कितना महत्व होता था ? महिलाओ का इन मान्यताओ पर कितना विश्वास होता था इस बारेमे की जानकारी मेरी यादों के जरिये हमने देखी. आज के भागमे मेरी यादों के माध्यम से आज हम देखेंगे की, मेरे पिताजी के बाल सखा पि. मामाजी का मेरे जिवन मे क्या महत्व रहा है......... मेरे पिताजी के बचपन के एक बाल सखा (मित्र) थे. वे दोनो एक ही उम्र के थे. उन दोनो ने स्कूल मे एक साथही पढाई कियी थी. फूरसत मे दोनो एक साथ ही कवळी गोली के खेल खेला करते थे. परंतु दोनोमे फरक यही था की वे मराठी भाषिक थे. पिताजी हिंदी भाषिक थे. फिर भी दोनो एक माँ के दो बच्चों के समान थे. घर की एक रोटी दोनो आधी आधी बाटकर खाते थे. इतना उन दोनोका दोस्तांना घना था. मै पि. मामाजी को पिताजी के साथ बचपन से ही देखते आ रहा था. पि. जब भी हमारे घर आते तब वे हमारे परिवार के सदस्यो से हमारे ही भाषा मे बातचित किया करते थे. पिताजी ने टुरिंग टाॅकिज का काँट्रॅक्ट जब लिया था तब वे भी उनके साथ ही जाते रहते थे. बहिरम यात्रा के वसूलीके काँट्रक्ट मे भी पि. मामाजी का साथ पिताजी को मिलते रहा था. सिर्फ बात इतनी थी की उसमे उनका आर्थिक सहभाग नही होता था. पिताजी उन्हे एक भाई के समान मानते रहते थे. पि. मामाजी मेरी माँ को बहन मानते थे. और माँ उन्हे खुद के भाई समान दर्जा देते हुये हर रक्षाबंधन को राखी बांधती थी.
पि. मामाजी हमारे ही गाँव मे रहते थे. उनके दो बडे भाई अपने परिवार के साथ अपने अपने अलग घरो मे रहते थे. छोटे भाई कामधंदा करने के लिये सांगली सोलापूर के तरफ चले गये थे. पि. मामाजी की उम्र होने पर भी उनकी शादी नही हो पा रही थी. पि. मामाजी के पास घर जमिन न होने के कारण उन्हे समाज मे कोई लडकी देने को तैयार नही हो रहे थे. पि. मामाजी को, पिताजी ही कुछ ना कुछ कामधंदा देकर गुजारे लायक उनकी आमदनी करा देते थे. मेरे पिताजी ने पि.मामाजी के भाई लोगोंको उनके लिये लडकी देखने को कई बार कहा था परंतु उन्हे समाज के लडकी वालो का रिस्पॉन्स न मिलने से किसीने आगे आनेकी हिंमत नही कियी थी. पिताजी उनके बाल सखा पर आये परिस्थिती से बेहद चिंतित थे. उन्होने पि. मामाजी की शादी कराने का मन ही मन निश्चय कर लिया था. कुछ दिन के प्रयत्नो के बाद पिताजी ने एक जगह के लडकी वालो को लडके की गॅरंटी दिलाकर शादी के लिये राजी करा लिया था. पि. मामाजी को अपना एक खाली वाला घर रहने के लिये भी दे दिया था. पि.मामाजी शादी के बाद हमारे वाले (पांडे वाले) घरमे रहने लगे थे. इस तरह मेरे पिताजी पि.मामाजी की घर गृहस्थी शुरू कराने मे सफल रहे थे.
पि. मामाजी ने उनके जिवनमे एक काम बहूतही अच्छा किया था. 1942 मे राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के विरोध मे "चले जाव" आंदोलन सारे देशमे चलाया था. पि. मामाजी देश प्रेमी थे. उन्होने "चले जाव" आंदोलन मे हिस्सा लेनेपर उनको भी जेल जाना पडा था. (आगे भविष्य मे उनको स्वातंत्र्य संग्राम सैनिक ठहराया गया था और सरकारी पेंशन भी मिलने लगी थी.)
मै जब गाँव के मराठी प्राथमिक स्कुल मे पढाई कर रहा था तब पि. मामाजी हमारे क्लास मे आकर हम लोगोसे मराठी वाचन लिया करते थे. उन्हे पढाई मे बहूतही रूची थी. उस समय मे रेडीओ के राष्ट्रीय समाचार सुनने वाले वे मेरे गाँव के एकमेव व्यक्ती थे. पेपर पढ पढकर वे बुद्धी से तल्लख बन गये थे. मेरे पिताजी से वे अति घुले मिले हुये थे. हमारे खेतोमे बरसात के सुरूवात मे होने वाले सरते वाली बिज पेरनी के लिये पि. मामाजी आवश्यक उमेदवार होते थे. उस कामके बदले मे पिताजी उन्हे मोबदला भी देते थे. इस प्रकार हम सब परिवार के लिये पि. मामाजी मेरे घरके एक स्थायी सदस्य होते थे. परिवार के छोटे बडे निर्णयोमे उनकी रायका महत्व बराबरी का होता था.
To be continued.
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें