प्यारे पाठको, पिछले भागमें हमने देखा की, हमारे घर वालो के साथ {पि.} मामाजी के क्या संबंध थे ? उनके शादी के लिये पिताजी ने कितने और कैसे प्रयत्न किये थे ? {पि.}मामाजी का जिवन कैसे बिता था ? इन सब बातो को (मेरी यादों के माध्यम से) हमने जाना. आज हम जानेंगे, हमारी बडी (ममेरी) बहनजी "{डी.} बहन" के बारेमे की कुछ रोचक घटनाये. इन रोचक घटनाओ को हम तब से याद करेंगे, जब से मेरे बचपन मे मुझे थोडी समझ आना शुरू हुयी थी. अब मुझे याद आ रहे है मेरे बचपन के वे दिन, जब मै मात्र चार पाच साल का ही था. मेरे से छोटी वाली बहन दो ढाई साल की होगी. यह प्रसंग "डी. बहन" के साथ मुझे याद आने वाला सर्व प्रथम का प्रसंग है. "डी. बहन" उस समय आठ दस साल की होगी. तब "डी. बहन" मेरे से छोटी बहन को काँखमे उठा कर आंगन मे घुमा रही थी. मै भी छोटी को चुप कराने के प्रयत्न मे "डी. बहन" का साथ दे रहा था. उस समय की वह एक हलकीशी पतलीशी लडकी जो पोलका और लहंगा पहने हुये थी, वही मेरी ममेरी बहन "डी. बाई" थी. मेरे बडे वाले मामाजी की इकलौती बेटी थी मेरी "डी. बहन". उनके बचपन मे ही उनकी माँ स्वर्ग सिधार गयी थी. इस कारण, मेरे बडे वाले मामाजी ने दुसरी शादी न करते हुये, अपने इस इकलौते बेटी को मेरी माँ ( डी. बहन की फुफी) के घर गृहस्थी का काम काज शिखने के लिये भेज दिया था. मेरी माँ "डी. बहन" के पिताजी की इकलौती बहन थी. हम सब भाई बहनो की "डी. बहन" "बडी बहनजी" थी. हमारे परिवार मे हम सब बच्चो मे "डी बहन" उम्र से ज्येष्ठ थी. उसी के देखरेख मे हम सब भाई बहन बडे होते गये थे. हम सब पर उसीके संस्कारो छाप पडी थी.
मेरी माँ के मुँह से मैने डी. बहन के बचपन की कुछ रोचक बाते सुनी थी. उन्ही यादों के कुछ प्रसंगो की चर्चा आज हम करेंगे. बडे पिताजी और मंझले पिताजी को कोई बाल-बच्चे नही थे. उन दोनो को कही आने जाने का काम पडने पर उन दोनो के साथ "डी बहन" का ही नंबर लगते रहता था. उस जमाने मे हमारे गाँव मे कोई बाजार हाट भरता नहीं था. बाजार का काम पडने पर, घर वाले पाच छह कोस पर भरने वाले शहर के बाजार को जाकर वस्तूये खरिद कर लाते रहते थे. एक बार बडे पिताजी बाजार करने के लिये "डी.बहन" को छकळे मे बैठाकर शहर ले गये थे. बाजार करने के बाद, उधर से बडे पिताजी ने तेल घानी से लिया हुआ तिल के तेल का पिपा छकळे मे रख लिया था. घर वापसी मे गाँव को आते वक्त बडे पिताजी को किसी कारण वश, छकळे के निचे उतरने का काम पडा था. इस कारण उन्होने बैलो की रस्सी "डी. बहन" के हात मे देकर वे खुद निचे उतर गये थे. बडे पिताजी पिछे की ओर थोडी ही दुरी पर गये थे की, उसी समय मे छकळे को जोते बैलोने अकस्मात् मे धूम ठोक ली थी. छकळे के चलने की आवाज से बडे पिताजी का ध्यान उस तरफ जब गया, तब वे भौचक्के रह गये थे. उन्होने "लाळी रुख", "लाळी रुख" चिल्लाते हुये छकळे की तरफ दौड लगाकर बैलो को रोकने की कोशिश कियी. उस वक्त "डी. बहन" बैलो को बडी हिंमत से रोकने का प्रयत्न कर रही थी. थोडी देर बाद मे छकळे के सामने से होकर बैलो को रोकन मे बडे पिताजी, बडी मुश्किल से सफल हुये थे. परंतु बैलो के आडे, तिरछे भागने दौडने से तिल के तेल का पिपा छकळे से उछलकर जमिन पर निचे मे गिर ही गया था. छकळे से निचे तेल का पिपा गिरने से, उसका ढक्कन खुलकर, उसमे से आधे से जादा तिल का तेल निचे बह गया था. यह देखकर "डी बहन" ने रोना शुरू कर दिया था. बडे पिताजी ने तिल के तेल का पिपा उठाकर छकळे मे रखा और लाळी को समझा बुझाकर चूप कराया था. और बादमे धिरे धिरे दोनो गाँव मे आ गये थे. "डी बहन" के जिवन मे घटी हुयी यह घटना वह कभी भुला नहीं सकी. जब भी बडे पिताजी का जिक्र (यादो के जरिये) निकलते रहता है, आज भी "डी बहन" उस प्रसंग को जैसे के तैसा बयान करके पुरानी यादो को ताजा कर लेती है.
जब भी मेरी माँ "डी बहन" को घरकाम के बारेमे, डाट फटकारते रहती थी तब मेरे मंझले पिताजी और मंझली बडी माँ "डी बहन" का बचाव करते हुये उसे माँ के सामने से हटा लेते थे. "डी बहन" उनकी भी प्यारी दुलारी थी. उसने पुरे परिवार का दिल जितकर सबको अपना बना लिया था.
To be continued. .........
धन्यवाद. 🙏🙏🙏🙏🙏
रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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