"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 119 (एक सौ उन्नीस) :- लाखो तारें आसमान मे .....देखके दुनिया की दिवाली ... दिल मेरा चुपचाप जला ......(1987-88 के दरम्यान घटी सत्य घटनाओं पर आधारित मेरी यादें) (Part Two)

           मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 119 (एक सौ उन्नीस) :- लाखो तारें आसमान मे .....देखके दुनिया की दिवाली ... दिल मेरा चुपचाप जला ......(1987-88 के दरम्यान घटी सत्य घटनाओं पर आधारित मेरी यादें) (Part Two) 
           प्यारे पाठको, नमस्कार, शुभ दिपावली. पिछले भाग मे हमने देखा की, हम लोग नागपूर मे किराये का मकान ढुंडकर उसमे रहने लगे. वहाँ हमारे रिस्तेदार हमसे मिलने भी आते थे. उनमे ही एक श्रीमान "युसी"जी साहब थे. वे हमारी बेटी का रिस्ता उनके बडे बेटे डाॅक्टर से करना चाहते थे. इन बातो को लेकर हम पती पत्नी बहुत ही असमंजस मे पड गये थे.
अब पढिये, आगे की रोचक घटनाओ को.
           श्रीमान "युसी"जी साहब के बेटे का रिस्ता हमारे करने लायक जैसा था. सब बाते अच्छी थी. बात मेरी समझमे आ भी गयी थी. लेकीन, हमारे और हमारे बेटी के सपनो का क्या होगा ? वे तो सिर्फ सपने ही रह जाते थे. बहूतांश लोगोंकी सोच भी यही रहती है की, "सपने कभी सच नहीं होते". उन लोगोकी सोच और हमारी सोचमे "जमिन आसमान" का अंतर आ गया था. इसी कारणवश हम लोगोने जो निर्णय लिया, वह उस जमाने का "क्रांती कारक" निर्णय था, ऐसा ही कहना पडेगा. हम लोगो को  श्रीमान "युसी" जी साहब को, उनके बेटे के रिस्ते को नम्रता से नकार देना पडा. हमारा  "जबाब" सुनते ही श्रीमान "युसी"जी साहब को जैसे "सांप ने सुंघ" लिया था. उस समय, उनके मन की स्थिती को देखकर मुझे भी बहूत दुख होने लगा था. परंतु मै भी मजबूर था. श्रीमान "युसी"जी साहब, बडे ही भारी मनसे, उस समय हमारे घर से निकल पडे थे. बादमे वे कभी हमारे घर की तरफ आये भी नहीं. हम लोग एक अच्छी रिस्तेदारी को गवाँकर बैठे. इस बातके लिये हमे बहूतही दुख भी हुआ. कभी कभी बडे "मकसद" को पाने के लिये दिलपर पथ्थर रखकर कुछ छोटी बातो पर "पानी छोडना" पडता है. जिसे हम लोगोंको करना पडा था.
           धिरे धिरे, इस तरह हमारे परिवार का "गाडा"  चल रहा था. मेरे बच्चे स्कूल काॅलेजो मे जाने लगे थे. मुझे भी कंपनी के कामसे बाहर गाँव जाना पड रहा था. हफ्ते भर के लिये जाकर, वहाँ रहना खाना लाॅजमे ही चलते रहता. लेकिन परिवार को नयी जगह और नये शहर मे  छोडकर जाना, मेरे दिल को चोट पहूँचाने लगा था. फिरभी परिवार चलाने के लिये कोई दुसरा चारा मेरे पास नही था. इस कारण मुझे वह सब करना पडा था. हफ्ते भर बाहर गाँव मे, मै सोचने लगता की, मै क्या था ? और क्या करने जा रहा हूँ ? मेरे गाँव का परिवार मेरी गैरहाजिरी मे, "अपाहिज" सा बनते जा रहा था. इधर हफ्ते भर बाहर रहने के कारण मेरे बाल बच्चों का काॅन्फिडेन्स भी घटते जा रहा था. मै सिर्फ एक "कामगार" बनते चला था.  एक भी बात, मेरे दिलको पटने वाली नही हो रही थी. दोनो जगह की फॅमिली के बारेमे मैने जो सोच बनाई थी उसके लिये कोई जगह नही थी. मेरी दुविधा और भी बढने लगी. "कश्मकश" भरा वह जिना, मुझे कभी मान्य नहीं था. दुनिया अपनी दौड से चल रही थी. 
           दिपावली का त्यौहार सर पर आ खडा था. परिवार के साथ दिपावली का आनंद लेने का हम सब विचार कर रहे थे. लेकिन कंपनी मुझे छोडने तैयार नही थी. सालभर का बुकींग दिवाली की छुट्टीयो मे ही करने की उनकी सोच थी. मै दुसरो का ताबेदार बन गया था. क्या इसके लिये ही मैने गव्ह. सर्व्हिस छोडी ? प्रश्न कर्ता भी मै, और उत्तर देने वाला भी मै. मुझे ही उत्तर खोजना था. क्योंकी जिवन का हर क्षण अनमोल था. उसे युँही मजबुरी मे गवाते रहना बुद्धिमत्तापुर्ण कार्य मेरे लिये नही था. कंपनी के कामो मे व्यस्त होनेसे, बच्चे मेरी राह देखते रहे थे. उनको खुशीयाँ देनेमे मै असफल हो गया. मन ही मन, मै खुदको ही कोसने लगा था. दुनिया की खुशीयों को देखकर मेरा दिल जलने लगा था.   (क्रमशः)
To be continued......
धन्यवाद .
                                                                                                                                   श्री रामनारायणसिंह खनवे 
                                                                                                                                        परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 118 (एक सौ अठराह) :- "लाखो.. तारे आसमान में, ... देख ..के दुनिया की दिवाली, दिल मेरा चुपचाप जला ......(1987-88 मे घटी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part One)