मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 115 (एक सौ पंधरा) :- "बिकरम राजा पर विपदा पडी, भुँजी मच्छी डोह मे गिरी" ..... (1987-88 मे घटी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part Two) प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, मै और मेरा परिवार नागपूर पहुँचने के बाद, हम लोग, एन केन प्रकारे चाचाजी के घर पर पहुँच गये. जहाँ पर जानेका हमारा "कतई भी" विचार नही था. नजदिकी रिस्तेदार "भाई" के घर से भी हम लोग जल्दी ही "रिटर्न" आ गये. और इसके बाद, अब हम देखेंगे आगे की घटी घटनाये ..... प्यारे पाठको, कभी कभी हमारे जिवन मे कुछ ऐसे भी प्रसंग आते है की, उनके बारेमे हम कभी अंदाजा भी नही लगा सकते. क्योंकी हमारा "विवेक" हमे वह सब बाते करने की कभी इजाजत नही दे सकता. फिरभी दुर्भाग्य का "फेरा" बोलो या अपने ही "गलत निर्णयो" से बोलो, हमारे सामने कुछ ऐसी भी स्थितीयाँ खडी हो जाती है की, उनके सामने हम घुटने टेकने को मजबूर होना ही पडता है. उस समय आये परिस्थिती को हमे मन मारकर सहना ही पडता है. चलो तो देखे, "होनी अनहोनी" की विडंबना को.
परिवार के लोग सुबह से ही "भुके प्यासे" गाँव के घरसे निकलने के कारण बोजिल से हो गये थे. उनकी निंद अधुरी होनेसे वे सब बाहर कहीं जाकर खाने - वाने के मुडमे भी नही थे. इस कारण चाचाजी के घर आनेके बाद सब बारी बारीसे "आडे" पड रहे थे. मुझे भी सुस्ती आ रही थी. मैने भी कुछ देर "पैर" लंबे करने की सोची और उनके पासमे ही "लुढक" सा गया. जब शाम होने लगी, तब कहीं हम लोग जाग पडे. जागने पर हमारे सामने "चाय" लाये गयी. मन मारकर हम लोगोंको वहाँ की चाय लियी. मैने फिर सासूजी के घर चक्कर लगाकर देखा की, अगर सासूजी आयी हो तो हम सामान लेकर वहाँ निकल आयेंगे. लेकिन शाम तक बदकिस्मती से वे नही आयी थी. हमे नाईलाजसे चाचाजी के घर वापिस आना पडा. वहाँ "रात निकाले" बगैर हमारे परिवार के पास कोई "चारा" नही था. तब तक "चाचाजी" भी घर आ गये. उनके आनेके बाद, उनके इस दुःखद प्रसंग मे हम लोग भी सामिल हो गये.
चाचाजी वैसे साफ "दिलके" इंसान थे. मनमे कुछ न रखते हुये वे साफ कह दिया करते थे. उन पर पत्नी के "स्वर्गवासी" होने का दुःखद प्रसंग आया था. हम लोग भी "समंदर मे भटकी" नाव के जैसा, नसिब से किनारे पर, "चाचाजी" के घर पहूँचे थे. ऐसे स्थिती मे हमे भी वहाँ से कही ओर जाना उचित नही था. और वे भी हमारे जानेकी बात से सहमत नही थे. सो हम दोनो पती पत्नी ने वही चाचाजी के घर रात गुजारने का मन बना लिया. हमारे भी पास दुसरा कोई "चारा" नही था. चाचाजी के बेटीयों ने शाम का भोजन बनाया. हम सब लोग चाचाजी के साथ भोजन करने बैठे. "भुक" तो सबको लगी ही थी. सब सदस्यो ने बडे "चावसे" भोजन किया और विश्राम करने जल्दी ही बिस्तर पर पहूँच गये. लेकिन मुझे निंद आनेका नाम ही नही था. दिन भर मे घटी घटनाओ के निष्कर्ष मै मन ही मन मे निकाल रहा था. सुबह गाँव परिवार के मेरे सदस्यो को "बिच भंवरमे" उनके हाल पर छोड आने से उनपर क्या बिती होगी ? "अपराधी" मेरा मन मुझे कचोटने लगा था. घर परिवार मे बडा होने के नाते, उन सबका रक्षण करना मेरा पारिवारिक फर्ज बनता था, लेकिन फिरभी खुदगर्जी से मै वहाँ से निकल पडा था. और पडा भी ऐसी जगह पर, जहाँ पर पहले से ही "सुतक" था. पुराने लोगोमे ऐसे प्रसंगो के लिये एक कहावत कही जाती थी. "बिकरम राजा पर बिपदा पडी, भुँजी मच्छी डोह मे पडी." क्या मै भी इसी स्थिती मे पहूँच गया था ? मेरी असमंजसता बढते ही जा रही थी. बच्चों के भविष्य के "सुनहरे मायाजल" ने, मेरी माँ, बहनो को और मुझे नदी के दो किनारो पर खडा कर दिया था. क्या मै उनके प्रती कभी न्याय कर पाऊंगा? (क्रमशः)
To be continued........
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, कल एक विशेष घटना को लेकर हम फिर मिलेंगे. ( कृपया पढते रहे)
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