मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 113 (एक सौ तेरा) :- बच्चों के भविष्य की चिंता ने मुझे शहर की तरफ दौडाया".......(1987-88 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part One) प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, मेरी बडी बेटी "एम" ने बारहवी कक्षा अच्छे "परसेंट" से पास कर लियी थी. उसके हायर सेकंडरी पास हो जानेसे,मुझे भी, मेरे सपनो की थोडी बहूत झलक दिखने लगी थी. उस समय, मुझे बहोतही खुशी होनेसे, मुझे जो भी कोई मिलता, उसे मै "मिठाई-पेढा" खिलाये बगैर नही रहता. कभी न मिलने वाली खुशी की वजह से ही, मेरे देखे हुये सपनो की तरंगे भी, फिरसे मुझे दस्तक देने लगी थी. और अब हम देखेंगे आगे की घटनाये .... . प्यारे पाठको, भुतकाल के मेरे जिवन मे घटी "सत्य" घटनाओ को ही हम प्रस्तुत करते आ रहे है. जैसी जैसी घटनाये घटते रही, उनको समर्पित होते हुये, कुछ समय के लिये मै भी, "भुतकालीक काया" मे प्रवेशीत हो जाता हूँ. इसी बहाने उन घटनाओ को दोबारा फिरसे जी भी लेता हूँ. मेरी पुरी कोशिश यही रहती है की, घटी घटना के "सत्यांश" मे थोडा भी फर्क ना आये. आप सबका साथ मिलते रहने से ही मै यह कठीनतम कार्य कर पा रहा हूँ.
चलो, अब हम चलेंगे 1987 की घटनाओ ओर ..... घर छोडने का मेरा इरादा "पक्का" ही था. सिर्फ "कब और कहाँ" जाना यह मै तय नही कर पा रहा था. बाहर इस विषय पर मित्रोसे चर्चा करना याने, "अपने पैर पर खुद ही कुल्हाडी मारने" जैसी बात थी. सोचा हुआ अगला प्लॅन फेल होनेमे देर नही लगती. इस कारण मैने यह बात सिर्फ मेरे घरवालो को ही बतायी थी. वैसे तो वे सब मेरे घर छोड जाने से नाराज थे. लेकीन मेरे "पक्के" इरादो को देखते हुये, उन सब ने बेमन से "हाँ" किया था. घर बार, रिस्तेदार, मित्र मंडली को छोड जाना मुझे भी मनसे पसंद नही था. लेकीन दिलपर "पथ्थर" रखते हुये मै यह "निर्णय" ले रहा था. मेरे ससुराल वालो को भी यह बात पसंद नही थी. लेकिन वे भी उस समय कुछ बोल नही सके थे. मेरे चचेरे ससुरजी ने इसमे मेरी अच्छी सहायता कियी. उन्होने बडी हिंमत से मुझे "नागपूर" आने का निमंत्रण दे दिया. अब मुझे भी थोडा धाडस बंध गया था. वास्तविकता मे मै हर परिस्थिती के लिये "कॅपेबल" इंसान था. लेकीन बाहर के समर्थन के बगैर कोई निश्कर्ष पर जाना, कभी कभी मुश्किले भी खडी कर सकता है. इसलिये मै वहाँ नागपूर मे समर्थन को जुटा रहा था.
मेरे जाने का दिन आ ही गया. नजदिकी शहर "पीडी" से सुबह मे साडे पाँच की बस नागपूर के लिये थी. सिर्फ जानेकी देर थी. मैने सालदार से सुबह तिन बजे ही घरपर आने को कह देनेसे, वह ठिक कहे मुताबिक ही हाजिर हुआ. हम परिवार के सब सदस्य, उस रात सो नही सके थे. सबने किसी तरह सुबह के तिन बजाये थे. सालदार के आनेपर वह बैल गाडी की तैयारी मे जुट गया था. हम सब लोग तैयार होकर, गाडी मे घर गृहस्थी का सामान डलवाने की तैयारी मे बैठे थे. हम सबको उस दिन घर परिवार से "बिदाई" लेने का "बिरह" झेलने का दुखदायी अनुभव मिला. हम सबको बिदा करते समय, "मेरी बुढी माँ" जब रोने लगी तो, मै भी मेरे "आँसू" नही रोक सका था. लेकीन मेरी मजबूरी थी. उस वक्त मैने परिवार के सब सदस्यो को "धाडस" बंधाते हुये भरी आँखोसे उन सबसे "बिदाई" लियी. परिवार का कर्ता पुरुष "मै" ऊन्हे "मजधार" मे छोडकर जा रहा था. मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही थी. मै भी भगवान राम की तरह जैसे "बनवास" मे जा रहा था. उस वक्त उन सब पर क्या बिती होगी, इसकी तो कल्पना मात्र से ही हम सबकी आँखे भर आती है. मैनै खुद इस प्रसंग को झेला है.
सालदार ने बैलगाडी तैयार कर लियी. सुबह के अंधेरे मे मेरे बाल बच्चे और पत्नी बैलगाडी मे बैठ चुके थे. मेरे बैठते ही सालदार ने गाँव बाहर के रास्ते से गाडी निकाल लियी. पुरा गाँव गहरी निंद मे सो रहा था. और मै, मेरे परिवार को एक "अनजानी डगर" पर ले चला था. मुझे समझ नही आ रहा था की, मै यह सब क्यों कर रहा हूँ ? रात किडो की वह कर्कश बेसूरी आवाज, हमारे दिलो को जैसे "चिरे" जा रही थी. "आत्मा" को घर पर ही छोडकर, मै फिजिकली, शहर की तरफ चले जा रहा था. अनासायास ही मेरे दुःखी मनसे इस गीत के बोल निकल रहे थे. "खतम.. हुये दिन, उस डाली के, जिस पर तेरा... बसेरा था. चल उड जारे ....
पंछी ...... (क्रमशः)
To be continued.......
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)
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