मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 117 (एक सौ सतरा) :- मैने देखे सपनो की नजदिकीयाँ नजर मे आने लगी : (1987-88 मे घटी सत्य घटनाओं पर आधारित मेरी यादें) (Part One) प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, हम लोग, मेडिकल डिग्री काॅलेज मे एडमिशन के लिये गये थे. लेकिन हम कुछ "अज्ञात" कारणवश मेरी बडी बेटी "एम" को उस काॅलेज मे एडमिशन नहीं दिला सके. वहाँ से हम दोनो पती पत्नी चुपचाप घर वापिस आ गये. अब देखे आगे ...... हमारी बडी बेटी "एम" एक "टॅलेंटेड और होनहार" लडकी थी. उसने शुरूसे ही अच्छे नंबर कमाये थे. तब से ही उसके उज्वल भविष्य की झलक हमे दिखने लगी थी. उसने बारहवी हायर सेकंडरी परिक्षा अच्छे नंबरो मे पास करने के बाद, हम दोनो की अधुरी इच्छाओं ने जोर पकड लिया था. मेरी पत्नी की "आंतरिक इच्छा" पढ लिखकर "डाॅक्टर" बनने की थी. लेकिन माता पिता ने उनकी शादी उम्र होने के पहले ही मेरे साथ कर दियी थी. लडकीयों की उम्र "बाल विवाह" करने जैसी ही होती थी. उनके, डाॅक्टर बनने की इच्छा मनमे ही रह गयी थी. उन दिनो कुछ ऐसी ही सामाजिक प्रथाये भी चलते आ रही थी. अब मेरे बेटी की मेडीकल काॅलेज की एडमिशन "चुक" जानेसे, अधुरी रही मेरी इच्छा को, वास्तविकता मे लाने के लिये लाॅ काॅलेज मे उसकी एडमिशन कराने के प्रयत्न मे मै जुट गया. हम लोग सब कुछ भुलाकर अब "लाॅ" मे एडमिशन मिलाने के लिये भरसक प्रयत्न मे जुट गये. दो तिन बार जाने के बाद मेरी बेटी "एम" को "डाॅ.ए" लाॅ काॅलेज मे "फर्स्ट इयर" की एडमिशन कराने मे हम सफल हो गये. उस समय हम सबको बडी ही खुशी हो रही थी. मेरे "सपनो की दुनिया" साकार होने का मार्ग नजर आने लगा था. सिर्फ रास्ता "चलकर" जाना ही बाकी था. मंझिल को एक दिन आना ही आना था.
"लाॅ काॅलेज" हमारे इलाखे से पाँच कि.मि. के दुरी पर था. हमारी बेटी "एम" ने कॉलेज जाना शुरू कर दिया. हर दिन सिटी बस से काॅलेज जाना आना पडता था. हमारी बेटी "एम" के लिये यह सब नया था. लेकिन उसने जल्दी ही "एडजेस्ट" कर लिया. हम थोडे निश्चिंत होने लगे थे. हमारा पहला "इम्पाॅरटंट" काम आगे निकल पडा था. अब देखना था, दुसरा "रोजी रोटी" चलाने वाला काम. अखबार के जरिये निकले जाॅब की पुछताछ करते कराते, मुझे शैक्षणिक साहित्य की ऑर्डर लेने की ड्युटी वाला काम एक जगह दिख पडा. मै स्कूल काॅलेजो के संपर्क मे पहले से ही था. मैने भी अपने पिछले अनुभवो के बल पर उस "शैक्षणिक नक्शे" वाली ड्युटी को संभाल लेना ही उचित समझा. कंपनी का रिसीट बुक बॅग मे रखकर सिर्फ "ऑर्डर बुकींग" करने का काम मुझे करना था. शाम मे उसे कंपनी को पहूँचा देना था. लायी गयी ऑर्डर फालो करने का काम कंपनी का था. मेरा टिए डिए कंपनी संभालती थी. मुझ पर कोई बाॅसिंग भी नहीं था. इस कारण मुझे काम मे आनंद भी मिलने लगा था. हमारी "रोजी रोटी" का दुसरा सवाल भी छुटने लगा था. अब तिसरी बात, अच्छे से किराये के मकान ढुंडना बाकी था. समय मिलते ही हम दोनो पती पत्नी मकान के बारेमे पुछताछ करते रहे. मेरे पत्नी की उस मोहल्ले मे अच्छे से पहचान थी. उसका जन्म और बचपन भी उसी मोहल्ले मे बिता था. उसे मकान की मालूमात मिलते जा रही थी. लेकिन हमारी पसंद कुछ अलग होनेसे, उस तरह के मकान हम ढुंड रहे थे. मेरे स्टॅंडर्ड को मै खोना नहीं चाहता था. इसी कारण हमे मकान मिलने मे दिक्कते आ रही थी. तब तक हम सबको ससुरालमे ही दिन काटने पडने वाले थे. किसके नशीब मे क्या लिखा है, कोई नही बता सकता. आये दिन को कोई नही पकड सकता. चलते रहने के शिवाय हमारे हातमे कुछ नही होता. और "होनी को कोई टाल भी नहीं सकता". (क्रमशः)
To be continued......
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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