मेरी यादें ( Meri Yaden ): भाग 112 ( एक सौ बारा ) :- अंधेरी रातोमें दिखी मुझे एक नन्ही सी किरण, जिसने बढाया मेरा जिनेका हौसला : ( 1986-87 मे घटी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part One) प्यारे पाठको, पिछले भाग में हमने देखा की, मेरे दोनो छोटे भाईयों की शादी हो चुकी है. शादी होने के कुछ ही दिनो बाद दोनो भाईयों ने अपना अपना "घर" संभाल (बना) लिया था. जिससे मै और मेरी पत्नी को अंदर से बहूत बडी ठेस पहूँची थी. हम दोनोके और भाईयों के सोचमे "जमिन आसमान" का अंतर महसुस होने लगा था. और इसके बाद फिर आगे क्या क्या घटनाये घटी, उनके बारेमे हम अब जानेंगे. अब तक के प्रसंगो मे मेरे बच्चों के बारेमे का जिक्र बहूत ही कम बार आया है. घर गृहस्थी और पारिवारीक समस्याओ से "घिरा" मै, मेरे बच्चों के तरफ अब तक कुछ भी ध्यान नही दे सका था. स्कुलो मे उनकी एडमिशन करा देने के शिवाय उनकी जिम्मेदारी मै कुछ भी संभाल नही सका था. वे सब अपने अपने "बलबुते" पर ही पढने लगे थे. मै सिर्फ उनके "पास या फेल" को ही देखते रहा था. फिर भी अब मुझे उनकी भी फिक्र होने लगी थी. क्योंकी मै ऐसेही जिवन यापन करते रहा, तो मेरी आनेवाली "भावी पिढी" भी ऐसे ही अंधेरे मे हाथ पैर मारते रहेगी. जिसका श्रेय मुझे ही मिलता रहेगा. मै आये परिस्थिती से सिधा मुकाबला करने को तैयार हो रहा था. मै मन ही मन इस बारेमे सोचने को मजबूर हो गया था. मै किसीभी किंमत पर उन सबका भविष्य उज्वल बनाना चाहता था. मेरी बडी बेटी जिसका नाम "एम" था, उन दिनो, नजदिकी वाले "पीडी" शहर के म्युनिसिपल हायर सेकंडरी की बारहवी कक्षा मे पढ रही थी. उसके "टँलेंट" को देखते हुये, मैने ही जान बुझकर उसका "मँथ सायन्स" मे दाखिला करा दिया था. वहाँ के "सिटी" मे पढने वाले होशियार दिखने वाले बच्चे उसे, "गाँव खेडे" वाली "इंग्लिश मँथ" मे क्या टिकेगी कहकर हिनाने लगे थे. परंतु मेरी बेटी "एम", जैसे लोहे जैसी मजबूत बनी हुयी थी. विपरीत परिस्थितीयों से वह नही डगमगायी, और भी मजबूती से वह आगे बढते रही थी. शुरू मे तो मुझे उसके इस "सुप्त शक्ती" की कोई कल्पना नही थी. लेकिन बाकी सिटी के बच्चों के मुकाबले मे, स्कूल की परिक्षाओ मे उसे जो "सफलता" हासिल हो रही थी उसे देखकर, मुझे उसके अंदर के टॅलेंट का अंदाज आने लगा था. परंतु अंदरसे थोडी धाकधूक भी लगी रहती थी. क्योंकी वह गाँव से पढने जाने वाली "अकेली" पहली लडकी थी. उसमे भी उसकी अंग्रेजी मिडियम से मॅथ सायन्स की स्टडी थी. लेकिन बारहवी कक्षा का जब रिझल्ट आया, तब अच्छे अच्छे ट्युशन मे जाने वाले सिटी के बच्चे फेल हो गये थे. मेरी यह गाँव खेडे वाली सुपुत्री, लडकियो मे से जब अकेली पास हुयी तो, अभी तक की होने वाली खुशीयों सेभी बढकर खुशी जिवनमे मुझे "पहली बार" हुयी थी. उस खुशी की तुलना मै किसी भी दुसरी बात से नही कर सकता. मै तो इतना खुश था की, मुझे जो भी मिलता उसे मै "मिठाई पेढा" खिलाये बगैर नही रहता था. मेरे देखे हुये सपनो को, पैर जो फुटने वाले थे. जिवनको ऊँचा उठाने के सपने सिर्फ मैने देखे थे. उनको "साकार" कैसे करू इस बारेमे ही मुझे सोचना था. जो सपने मैने देखे थे उन्हे मै किसी को भी बता नही सकता था. क्योंकी उस समय की सामाजिक आर्थिक जो भी परिस्थितीयाँ थी उन्हे देखते हुये मेरे लिये, सपनो तक पहूँचना अशक्य प्राय बात थी. यह बात मै भली भाती अच्छे से जानता था. देर होने वाली थी. इसलिये मै उन सपनो को "डिलीट" भी नही होने दे रहा था. वर्तमान स्थिती से रास्ता निकालते हुये ही मुझे उन सपनो तक पहूँचना था.
(क्रमशः)
To be continued........
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर. (महाराष्ट्र).
(प्यारे पाठको, अगले भाग मे हम एक नये रोचक घटना को लेकर कल फिर मिलेंगे.)
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