मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 116 (एक सौ सोलह) :- "नया टर्न" लेते हुये नागपूर मे निकला मेरे जिवन का पहला दिन : (1987-88 के दरम्यान में घटी मेरे जिवन की सत्य घटनाये) (Part One) प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, मै परिवार को साथ लिये नागपूर मे चाचाजी के घर पहुँच गया था. जहाँ रातमे भोजन पानी करने के बाद हम लोगोंको मुकाम करने पडा. क्योंकी ससुराल के घर पर हमे "ताला" देखने को मिला था. और अब देखेंगे हम, आगे की घटनाये ..... प्यारे पाठको, पिछले भाग मे मैने आपको बताया था की, चाचाजी के घर पर "सुतक" चलते हुये भी, हम सब लोगो को वहाँ पर भोजन पानी लेना ही पडा था. उसके बाद मेरी पत्नी और बच्चे, थकान की वजह से जल्दी ही गहरी निंद सो गये थे. लेकिन मुझे निंद आने का नाम ही नही था. रह-रहकर वही गाँव परिवार के सदस्यो के बारेमे, विचारो का "कोलाहल" मेरे दिलमे "मच" सा गया था. उससे जान छुडाकर भागने की मै "नाकाम" कोशिशे भी कर रहा था. फिरभी मेरी "आत्मा" मुझे अपराधी घोषित करने पर ही तुली हुयी थी. उसके "सच" के सामने, मुझे पिछेहाट लेनी ही पडी थी. हार मानते हुये मुझे सो जाना पडा था. मेरे परिवार के भविष्य को नजर मे रखते हुये, खुद मेरी "आत्मा" ने भी घुटने टेक दिये थे. जो मेरे "तत्व" के एकदम "खिलाप" बात थी. हमे मिली हुयी जबाबदारी को संभालने मे "कुचरायी" करना और "मन गढंत" कारणो को बताकर अपनी जान को बचा लेना, मेरे दृष्टीसे यह "अनिती वाला" ही कार्य था. बचपन मे वैसे संस्कार मुझ पर नही हुये थे. उन्ही संस्कारो की "पुंजी" पर ही तो, मै अब तक चलते आया था. इस बारेमे कोई काॅम्परमाईझ करना, मुझे कतई पसंद नही था. इस प्रसंग की "ठेस" मेरे दिल के गहराई मे पहूँची थी. जिसे मै किसी को बता भी नहीं सकता था.
चाचाजी के घर पर सुबह मे, पहले दिन के सुरज को देखते ही, मेरी निंद खुल गयी थी. देखा तो बच्चे अभी भी सो रहे थे. पत्नी भी जागकर हात-मुँह धोने मे व्यस्त दिखी. मै भी जल्दी से ही "फ्रेश" होना चाहता था. चाय बन कर तैयार थी. येन केन प्रकारेन् जल्दी से हम "चाय पानी" निपटाते हुये ससुराल के तरफ चल पडे थे. सासूजी रातमे देरसे घर पहूँची थी. हम आनेकी खबर उन्हे रातमे ही मिल गयी थी. रात ज्यादा होने की वजह से, उस समय वे कुछ नही कर सके थे. सुबह मे जल्दी से ही, हम लोग "सामान" लेकर ससुराल मे पहूँच गये थे. अब मै थोडा निश्चिंत सा हुआ था. नये शहर मे बाल बच्चों को लेकर "बेसहारा" नही रहा जा सकता. हमे रहने और भोजन पानी का सहारा ससुरालमे मिलने के बाद, अब हम अगले कामकाज के तरफ मुडने लगे थे. हमारा सबसे पहला काम, बडी लडकी "एम" को मेडीकल की "डिग्री कोर्स" के लिये एडमिशन दिलाने के प्रयत्न करने थे. हमने "मेडीकल काॅलेजो" के चक्कर लगाने शुरू कर दिये थे. आखिर हमे एक अच्छे मेडिकल काॅलेज मे एडमिशन देने को तैयार हुये. उन्होने हम लोगोंको डाक्युमेंट्स लेकर दुसरे दिन आनेको कहा गया था. उस दिन, हम लोगोंके खुशी का ठिकाणा नही रहा था. "डाॅक्टर" बनने की मेरे पत्नी की वह अपुरी इच्छा, उनकी शादी जल्दी होने के कारण "अधुरी" ही रह गयी थी. उनकी वह "इच्छा" अब पुरी होने मे कुछ ही समय बाकी था.
दुसरे दिन डाक्युमेंट्स और स्टुडेंट को लेकर हम उस मेडिकल कॉलेज मे पहूँच गये थे. जहाँ हम लोगोको कन्सर्निंग विभाग मे जाकर मिलने के लिये कहा गया था. वहाँ काऊंटर पर सर्टिफिकेटस वगैरा देखकर "ओके" भी कह दिया गया था. लेकिन उसके साथ ही उन्होने कुछ "फंड" भी जमा कराने के लिये बता दिया था. यह सुनते ही हम दोनो पती पत्नी के चेहरे देखने लायक हो गये थे. हम दोनो एक अनामिक चिंता मे पड गये थे. कुछ न बोलते हुये, वहाँ से हम लोग "चुपचाप" मे घर निकल आये थे. इन बातो के बारेमे अब तक हम "अनभिज्ञ" जैसे ही रहे थे. लेकिन उन्ही का "परिचय" हम लोगोंको मिलने लगा था. "बिकरम राजा पर बिपदा पडी और भुँजी मच्छी डोह मे गिरी" वाला अनुभव, अब हमे आने लगा था. न छुटने वाला "सवाल" हमारे सामने दैत्य के समान सामने आकर खडा हो गया था. उसके सामने हम खुदको असहाय "हतबल" से लग रहे थे. हमारी ही कोई कमजोरी की वजह से उस समय की हमारी टॅलेंटेड लडकी "डाॅक्टर" बनने से "वंचित" रह गयी थी. उसका कल का उज्वल भवितव्य अंदर ही अंदर "छटपटाते" हुआ मुझे दिखने लगा था. क्या हम उसे "न्याय" दे सकेंगे ? मै तो "घर का भी नही और घाट का भी नहीं" रहा था. ( क्रमशः)
To be continued ........ धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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