प्यारे पाठको, आपको याद ही होगा की, मेरे परिवार के सदस्य और मै, गाँव से आने के बाद, ससुराल मे ही "डेरा" दाले हुये बैठे थे. रहने और भोजन पानी की व्यवस्था पिछले "पंधरा" दिनो से ससुराल वाले ही कर रहे थे. यह स्थिति किसी भी "स्वाभिमानी" व्यक्ति के लिये "शोभा" देने वाली निश्चित ही नहीं थी. चार, आठ दिनो के बाद, ससुराल में दिन काटना, मेरे लिये बहोत ही कठीण हो गया था. मेरी बडी बेटी और बाकी छोटे बच्चों की, स्कूल काॅलेजो की "एडमिशन" हो जाने के बाद, मैने भी काम ढुंड लिया था. अब बाकी था सिर्फ, अलग से मकान किराये पर लेना. कुछ दिनो के बाद हम, उसी मोहल्ले मे किराये का मकान ढुंडने मे सफल हो गये. मकान की उपरी मंझिल पर हमारी रूम थी. किराया भी, उन दिनो के हिसाब से हमे "मुँह बोले" ही ठहराने पडा था. लेकिन मकान मेरी पसंद का था. दुसरे ही दिन हम लोग सामान लेकर नये मकान मे रहने आ गये. घर गृहस्थी के काम वाला जो भी सामान हमने गाँव से साथ लाया था, उसी से काम चलाने पड रहा था. धिरे धिरे बाकी और भी सामान हम लोग खरिदते गये. इस तरह मेरे "घर परिवार" की शुरूवात नागपूर सिटी मे हो गयी.
धिरे धिरे, मेरा परिवार वहाँ के स्थानिक निवासी लोगो के साथ घुल मिल जा रहा था. रिस्तेदार भी हमारे घर आने जाने लगे. पहचान वाले दोस्त लोग फुरसत मे मुझे मिलने आते थे. बडी बेटी का काॅलेज भी अच्छे से चल रहा था. वह सिटी बस से आती जाती थी. जिस दिन उसे आनेमे देर हो जाती, हम लोग बडी ही चिंता मे पड जाते थे. क्योंकी सिटी मे हर दिन ऍक्सिडेंट की घटनाये सुनने मे आती थी. उसमे हमारी बेटी गाँव से आयी हुयी थी. इस कारण हम दोनो "चिंतित" होकर उसे ढुंडने "लाॅ काॅलेज" तक सायकिल से पहूँच जाते थे. वहाँ से फिर हम दोनो को घर वापस आने पडता था. ऐसे प्रसंगो को हम लोगोंने कई बार झेला. क्योंकी हमारी वह बेटी उस समय हमारे "सपनो" को पुरा करने मे "ओनली वन" जैसी थी. फिर हम, उसके बारेमे इतना "ला परवाह" कैसे रह सकते थे ?
पिछले कुछ दिनोसे हमारे एक दुर के रिस्तेदार श्रीमान "आरसी" जी हमे मिलने आने लगे थे. वे खुद सरकारी नोकरी मे अच्छी जगह पर थे. उनका "एस" मोहल्ले मे खुदका बडासा मकान भी था. उन्हे दो लडके और एक लडकी थी. लडके पढे लिखे थे. परिवार भी सधन था. स्वभाव से वे बहूत ही सिधे साधे लगते थे. हमारे यहाँ आकर हमारे परिवार के साथ, उनकी इधर उधर की बाते होती थी. चाय नास्ते के बाद वे सायकिल से घर चले जाते थे. ऐसा क्रम कई दिन चलता रहा. एक बार उनके घर वापीस जाते वक्त, मुझे भी बाहर कहीं कुछ काम था. उसे करने, मै भी सायकिल से उनके साथ ही निकल पडा. कुछ देर आगे चलने के बाद, मुझे "आरसी" जी ने एक जगह रूकाकर दिलकी बात निकाली और मुझे बताया की, उनके "डाॅक्टर" बने हुये बेटे का रिस्ता हमारी बेटी के साथ वो करना चाहते है. "रिस्ते की बात" सूनकर, मैने घर वालो से विचार विमर्श करने के बाद ही, जबाब देने के बारेमे मैने उन्हे बता दिया.
रिस्ते की बात मैने पत्नी को बतायी. उसपर जैसे "वज्राघात" सा पडता दिखायी दे रहा था. उसका चेहरा मुझे सब कुछ बता रहा था की, उसके अंदर क्या चल रहा है. मुझे लडके वालो का सब कुछ पसंद आ गया था. लडका भी देखा हुआ था. पढ लिखकर "काबिल" बन गया था. घर घराना भी अच्छा सा था. फिर ज्यादा सोचने की कोई बात ही नही थी. लेकिन एक बात जरूर थी. हमारे और बेटी के सपनो का क्या होगा? उन सपनो के बल पर ही, तो हमारी आगे की "वास्तु" खडी होने वाली थी. सपने अगर पुरे नही हुये तो, भविष्य क्या होगा ? परिवार कहाँ पहूँचेगा ? बडा ही दुविधा भरा बिकट प्रसंग हमारे सामने खडा हो गया था. महाभारत युध्द के दौरान अर्जुन की जो व्दिधा मनस्थिती हुयी थी, कुछ वैसी ही परिस्थिती हमारे सामने भी खडी हुयी थी. (क्रमशः)
To be continued .....
धन्यवाद .
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष रोचक प्रसंग को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.) (जरूर पढीये)
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