मेरी यादें :- ( भाग 10 : सत्य घटनाओ पर आधारित ) मेरे पिताजी टूरिंग टाॅकिज का काँट्रॅक्ट कैसे लेते थे ? ....... ( Part One )
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मेरे पिताजी टूरिंग टाॅकिज का काँट्रॅक्ट कैसे लेते थे ? .......
प्यारे पाठको, मेरी यादोंमे आज हम एक नयी घटना के बारेमे जानेंगे. मेरे बचपन के दिन थे. मेरी उम्र उस वक्त अंदाजन होगी सात आठ साल. मेरे पिताजी को किसी भी रिस्की बातका काँट्रॅक्ट लेते रहनेका छंद पहलेसे ही था. उन कामो से होने वाले फायदे नुकसान को लेकर वे कभी घबराते नही थे. जान बुझकर रिस्क लेने का उनका स्वभाव जो था. इसी तरह रिस्क लेते रहने से ही तो उन्होने बहूतशी जमिन जायदाद भी कमायी थी. उनके वही संस्कार मुझपर भी होते गये. आगे बडा होनेपर जिवन मे बडी से बडी रिस्क लेकर आगे बढनेकी आदत सी मुझे भी पड गयी. फरक इतना ही था की मै उन बातो को नये विकसित मॅनेजमेंट के हिसाब से करते गया. जिसका रिझल्ट अब हम सबको दिख रहा है.
सो उसी रिस्क लेनेके चक्कर मे, मेरे पिताजी ने पासवाले बडे गाँव के सिनेमा टुरिंग टाॅकिज को चलाने का काँट्रॅक्ट लिया था. उस काँट्रॅक्ट के मुताबिक सिनेमा की प्रिंट लाना और प्रोजेक्टर मशीन से दर्शको को पिक्चर दिखाने का कार्य थियेटर मालिक को करना था. पिक्चर की अँडव्हरटाईज करने का काम भी थियेटर मालिक के तरफ ही था. दर्शको से बुकींग मे मिली हुयी रकम मेरे पिताजी को ही लेना था. इसके मोबदलेमे मेरे पिताजी से थियेटर मालिक को दिये जानेवाली रकम को हर दिन लेनेके बारेमे काँट्रॅक्ट ठहरा हुआ था. हमे नफा हो या नुकसान, थियेटर मालिक बुकींग खत्म होते बराबर रकम लेने को तैयार बैठा रहता था.
इस काँट्रॅक्ट को निभानेके लिये मेरे पिताजी को शामके पाच बजते ही हमारे गाँव से हर रोज ठहराये हुये किराये के बैल गाडी मे बैठकर साथमे चार आदमी को लेकर सिनेमा टाॅकिज के गाँव जाना ही पडता था. पिताजी के साथ मै भी बैल गाडी मे बैठकर हर दिन जाते रहता था. चार आदमी मे से दो आदमी पुरूषो के गेट पर, एक महिला गेट पर और एक बुकींग के लिये होता था. मेरे पिताजी और मै बुकींग वाले के पास बैठकर कुछ अफरा तफर ना हो इस लिये बैठते रहते थे. बैल गाडी का किराया, चार आदमी की मजदूरी और थियेटर मालिक की रकम यह सब को निकालकर बची हुयी रकम मेरे पिताजी की होती थी. जब कभी पिक्चर की बुकींग कम होकर मेरे पिताजी को घाटा होते रहता था तब थियेटर मालिक खुश होते रहता था. पिक्चर बिना कोई परेशानी से निपट जाती थी. परंतु जब कभी पिक्चर अच्छी चलती थी और बहूत सारी बुकींग होती, थियेटर मालिक की रंगबाजी शुरू हो जाती थी. वह प्रोजेक्टर ऑपरेटर की कानाफूसी करके जानबुझकर फिल्म को बारबार तोडने लगाता. जिससे अकस्मात ही थियेटर मे अंधेरा छा जाता था और दर्शको की नाराजी आते रहती थी. वे हल्ला गुल्ला मचाकर तिकीट के पेसे वापिस मांगने की रट लगाते रहते थे. थियेटर मालिक हर दिन के काँट्रॅक्ट की रकम घर ले जाकर आरामकी निंद सोते रहता था. वह जाते वक्त ऑपरेटर के कानमे पिक्चर कैसी चलाना है इसकी वार्निंग देनेका कार्य जरूर करता था. इस कारण पिताजी का ऑपरेटर और दर्शको के साथ झगडा होना नित्य कर्म बन गया था.
बुकींग होनेके बाद मै और पिताजी प्रोजेक्शन केबिन के सामने हर रातमे दो खुर्ची लगाकर पिक्चर देखा करते थे. उस समय से ही मुझमे के मालिक शाही के गुणोको बढावा मिलते गया, जिससे धिरे धिरे मेरा काँन्फिडेन्स भी बढते गया.
बस, यहीं से मेरा सिनेमा के प्रती आकर्षण बढते ही गया. जिससे मेरे जिवन को कल्पना रम्यता की साथ भी मिली.
To be continued......
धन्यवाद.
रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र) 🙏 🙏 🙏
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कलके भागमे फिर मिलेंगे.)
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