"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) :-भाग 34 (चौतीस) : मेरे काॅलेज की पढाई का दुसरा साल....(सत्य घटनाओ पर आधारित : 1965-66 के दरम्यान घटी हुयी घटनाये.) (Part Three)

             मेरी यादें  (Meri Yaden) :-भाग 34 (चौतीस) : मेरे काॅलेज की पढाई का दुसरा साल....
(सत्य घटनाओ पर आधारित : 1965-66 के दरम्यान घटी हुयी घटनाये.) (Part Three)
        प्यारे पाठको, मेरी यादों के माध्यम से, पिछले भागमे हमने देखा की, हेल्थ चेकिंग के लिये मै दवाखाने मे गया था.  वहां के डाॅ. साहाब ने मुझे एक महिना इंजेक्शन का कोर्स पूरा करने के लिये कहा था. उनके कहे मुताबिक मैने इंजेक्शन का कोर्स पूरा कर लिया था. अब मेरी तबियत मे अच्छा सुधार हो गया था. उसके बाद की घटनाये, मेरी यादों के माध्यम से अब हम आगे को देखेंगे........
             मेरी तबियत मे अब अच्छा सुधार हो गया था. मित्र मंडली भी मेरी  तबियत को  देखकर समाधान व्यक्त कर रहे थे. मुझे भी जिने मे अच्छा आनंद आ रहा था. फिर भी मेरी समझमे एक बात नहीं आ रही थी की,  उस समय मेरी उम्र अठारह साल की थी. डाॅ. साहाब ने उनके इंजेक्शन कोर्स के बाद, मेरे उम्र मे बिस साल बढने की बात कही थी. उस समय मेरी उम्र अठरा साल की और इंजेक्शन लेने से  बढे हुये बिस ऐसे अडतिस चालीस साल की उम्र मुझे डाॅ. साहाब ने उनके मेडिकल सायन्स के हवाले से बहाल कियी हुयी थी. 
        भगवान ने मनुष्य को सौ साल की उम्र दिये जाने की बात मैने कई बार सुन रखी थी. फिर मुझे सिर्फ चालीस साल ही क्यौ ? बस, इसी उधेड बुन को लेकर  मेरी आगे की खोज जारी हो गयी. मेरा रुटीन वर्क भी शुरू था. काॅलेज के क्लासेस करना भी शुरू थे. उस समय सब करने के साथमे ग्रॅज्युयेशन करने की बात मैने सोच रखी थी. काॅलेज की डिग्री मिलने के लिये दुसरा साल "पार्ट वन" कहलाता था. मैने "पार्ट वन" की परिक्षा भी पास कर लियी थी. अब मै थोडा और मजबूत और रिलॅक्स हो गया था.
              आगे की पढाई मै नोकरी के साथ करने  मे इच्छुक था. सो मैने जिले मे प्रायव्हेट फर्मो के ऑफिसेस मे जाकर जाॅब की इन्काॅयरी करना शुरू कर दिया. पर॔तु सब जगह "नो व्हेकँसी" की रट लगाकर मुझे वहां से बाहर का रास्ता दिखाया जाता था. जाॅब मिलाने के लिये आवश्यक काॅलिफिकेशन मेरे पास होनेपर भी, उस वक्त, मेरी हालत बहोत बुरी हो गयी थी. जो "घर का न, घाटका, दुष्मन अनाज का" हो गया था. भिकारी की तरह काम मांगने के इन हालातो की अब मुझे शर्म आने लगी थी. मेरा आत्मा तो मुझे धिक्कार ने लगा था. पर॔तु दुसरे ही क्षण भविष्य के सुनहरे सपनो की झलक भी  दिखाते रहता. मै भी जिद्दी इंसान था. "एक बार फिर कोशिश करके देख तो ले" इस माइंड से चलते ही रहता था. 
             ऐसे ही कोशिश करने पर मै एक बार अनासायास ही  अलका फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस मे मॅनेजर से व्हेकंसी पुछने पहूँच गया. मॅनेजर ने मुझे उपर से निचे तक देखा और मेरा नाम पुछा. मॅनेजर को जब मैने मेरा पुरा नाम बताया तो उन्होने मेरे पिताजी के नाम को "सिंह" लगा हुआ देखकर मुझे पहचान लिया. मै मॅनेजर के ही बिरादरी वाला था. उन्होने मुझे बिठाया और मेरे गाँव गोत्र के बारेमे  पुछ ताछ करने पर, उनके परिचित मॅनेजर मित्र के नाम चिठ्ठी देकर मुझे मित्रके "एम" फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस भेज दिया. मै उस ऑफिस मे पहूच ने के पहले ही उन्होने मॅनेजर मित्र को फोन से मेरी गॅरंटी भी दे दि थी. 
                  मै वहां जब पहूचा तो मॅनेजर मेरी राह देख ही रहे थे. उनको जब मैने चिठ्ठी बतायी तो उन्होने मेरे क्वाॅलिफिकेशन के बारेमे पुछकर उनके  "एम" फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस मे "टायपिस्ट" के पद की नोकरी दे दि. महिना पगार सौ रूपये + दो पहरके चाय पिने के लिये "तीस पैसे" नगद मिलने वाले थे. ऑफिस टाईम सुबह ग्यारह से शाम छह बजे तक और रविवार की छुट्टी थी. इस तरह मेरे जिवन की पहली नोकरी ईश्वर कृपा से मुझे प्राप्त हुयी थी.
             जिले के शहर मे लगे इस "टायपिस्ट" के नोकरी  निमित्त मै अब शहर मे पहले से ही किराये से रहने वाले मेरे दूरके रिस्तेदार भाई के रूम पर रहने लगा था. उनको मै पचीस रूपये खानेके और पाच रूपये रूम किराया ऐसे महिने के तीस रुपये मौसेरे भाई को देने का ठहरा था. उस जमाने मे इसी तरह के रेट थे. सोना एक सौ पचास रूपये तोला था. तीस पैसे मे चाय मिलती थी. मै चाय नहीं पिता था. उन तीस पैसो मे मै केले खरिद कर रूमपर ले जाता था. यह मेरा हर दिन का नियम था. हर शनिवार रात दस बजे तक गाँव जाकर मै रविवार की छुट्टी मे दोस्तो से मिल-जुल कर सोमवार सुबह ही ग्यारह बजे के अंदर "एम" पिक्चर्स के डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस मे पहूँचता था. 
To be continued.....
धन्यवाद. 
        श्री रामनारायणसिंह खनवे.
            परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)



 

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