"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) :- भाग 29 (उन्तीस) (सत्य घटनाओ पर आधारित) : मेरे परम प्रिय मित्र. (युके भाऊ) समय 1960 से 82 तक अंदाजन. (Part One.)

              प्यारे पाठको, मेरी यादों के माध्यम से, हमने अब तक देखा की, मेरी काॅलेज की पढाई शुरू हो चुकी है. साथ मे मैने टायपिंग सिखना प्रारंभ करके उसकी भी दो - एक परिक्षाये अच्छे श्रेणी मे पास करनेके बाद वहीं पर पार्ट टाईम नोकरी जाॅइन कर लियी थी. काॅलेज की प्रि युनिव्हर्सिटी की परिक्षा भी पास कर लियी थी. अब मेरा ध्यान मेरी पर्सनालीटी की ओर जाने लगा था. मेरी उँचाई कैसे बढेगी ? इसके लिये मेरे प्रयत्न शुरू हो गये थे.
             आगे बढकर देखने के पहले, मुझे थोडा पिछे की ओर की भूतकाल मे घटी घटनाओ के बारेमे जानने की उत्कंठा बढने लगी है. यह घटनाये मेरे परम प्रिय मित्र "युके भाऊ" से संबंधित है. मै उन (मित्र)के नाम की जगह पर "युके भाऊ " नाम लिख रहा हूँ. उस मित्र से संबंधित किसी  भी भावनाओ को ठेस ना पहूँचे, यही पवित्र उद्देश मेरा इसके पिछे मे है. कृपया आप मेरी इस भावना को समझ लेंगे.
             हमे और भी पिछे की भूतकालीन बाते दिख रही है. उन्ही बातो के नुसार, जब मेरे परम प्रिय मित्र युके ने मेरे मकान से दो तीन मकान आड मे ही किराने की दुकान शुरू कियी थी. तब मेरी उम्र अंदाजन दस साल की होगी. युके भाऊ की उम्र करिबन बिस बाईस साल की होगी. मेरे स्कूल टिचर के वे दो न॔बर के मंझले वाले लडके थे. युके भाऊ के पिताजी, मास्टर साहब को रहने के लिये मेरे बडे पिताजी ने उनका मकान फ्री मे दिया था. मास्टर साहब जब तक सर्व्हिस मे रहे, तब तक उसी मकान मे रहे थे. युके भाऊ की पढाई कक्षा आठ तक होने के बाद, नोकरी पानी करने, वे मुंबई चले गये थे. मुंबई मे कोई कंस्ट्रक्शन कंपनी मे युके भाऊ ने पाच छह साल बिताने के बाद वे गाँव मे लौट आये थे. उनकी एक आँख से थोडा कम दिखने की वजह से युके भाऊ बिना शादी के ही रह गये थे. मेरे बचपन से ही मेरा मास्टर साहाब के संपूर्ण फॅमिली से अच्छा ही परिचय था. इसी वजह से मेरा युके भाऊ से भी संपर्क बढते गया था. मै फुरसत के समय युके भाऊ के किराना दुकान मे जा बैठता था. छोटे गाँव की दुकान होने से ग्राहक इक्के दुक्के ही आते जाते थे. युके भाऊ दुकान मे फुरसत मे बैठे रहते थे. उनकी फुरसत देखकर मै भी वहीं पर जा पहूचता. मुझे युके भाऊ के बंबई रिटर्न के अनुभवो को सुनना अच्छा लगता था. उस समय मेरे लिये बंबई की बाते स्वर्ग मे घुमने जैसी लगती थी. साठ पैसठ साल पहले  बाहर की दुनिया से मेरा परिचय नही के बराबर ही था. मेरे मनमे कोई भी सवाल पैदा होने पर उसका समाधान मै युके भाऊ से ही कराते रहता था. मेरे लिये युके भाऊ ऑक्स्फर्ड की डिक्शनरी जैसे थे. गाँव के लोगो के मुकाबले युके भाऊ अनुभव मे रियालिस्टीक होनेसे, उनके सामने किसी की भी चलती नहीं थी. उनकी यही बात मुझे सबसे जादा पसंद होती थी. संभाषण मे वे सामने वाले को हमखास निरुत्तर करा देते थे. उनके हिंमत की दाद देनी पडेगी. उनको मैने कभी घबराये हुये परिस्थिती मे नहीं देखा. आगे के भविष्य कालीन समय मे, मेरे जिवनमे भी बडे बडे चढ उतार आये. उनके अंत समय तक उन्होने मेरी साथ कभी नहीं छोडी. वे हिंमत मे दस को भारी थे.
             युके भाऊ को इंग्लिश भाषा की पढाई मे बहूत ही रूची थी.  उन्हे जब भी समय मिलता वे हरदम इंग्लिश शब्दो की पढाई करते हुये ही मुझे दिखते थे. उनके व्यावहारिक बोलचाल मे  अंग्रेजी शब्दो का कुछ कुछ वापर करनेसे, सामने वाले को अपने फेव्हर मे करना वे अच्छी तरह जानते थे. वे गणित मे पक्के थे. तोंडी हिसाब करना उनके बाये हातका खेल था. इन सब कारणो से मै दिनो दिन युके भाऊ के घनिष्ठता मे आते रहा.
          उस समय मे,  हमारे गाँव मे पढाने के साथ ही एक अध्यापक, पोस्ट ऑफिस का काम देखते रहते थे. कुछ दिनो बादमे उन अध्यापक महाशय की बदली दुसरे गाँव होनेसे, पोस्ट का काम देखने कोई तैयार नही हो रहा था. ऐसे मे हमारे युके भाऊ सामने आये. पोस्ट का कार्य कितना भी बारिकी वाला हो, उस कार्य को स्विकार के उन्होने गाँव वालो से अपनी हिंमत का लोहा मनवा लिया था.
                                                                    To be continued........ 
                                                
                                               धन्यवाद. 
      
                                श्री रामनारायणसिंह खनवे. 
                                         परसापूर. (महाराष्ट्र).🙏🙏🙏🙏

(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)

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