प्यारे पाठको, कल के भागमे हमने यादों के जरिये देखा की, मेरे बचपन मे मै बहिरम यात्रामे कैसे जाता था और यात्रा मे क्या क्या बाते देखनेको मिली थी यह जाना. आज हम मेरी एम पी वाली बडी माँ और उनके भतिजों के बारेमे छोटे छोटे प्रसंगो मे से कुछ बाते जानने का प्रयास करेंगे. मेरे बडे पिताजी मेरी बडी माँ को एम पी के धौलपूर गाँव के समृध्द किरार परिवार से ब्याह कर लाये थे. यह समय अंग्रेजो के शासन काल का था. उस गाँव को जाने को रास्ते भी नहीं थे. बैल गाडी से तिन दिनो मे शेर चितो वाले घने जंगल से होकर जाना होता था. प्रवास मे कोई साथीदार भी नही रहता था. मेरे बडे पिताजी के साथमे सिर्फ बडी माँ ही रहती थी. हम कल्पना कर सकते है की, शेर चितो का घना जंगल और उनके बिच से पथरिले रास्ते से सिर्फ बडी माँ और बडे पिताजी का छकळे मे बैठकर धौलपूर गाँव को जाना. कितना खतरा भरा होता होगा. बडे पिताजी और बडी माँ दोनो कितने हिंमत के पक्के होंगे. इस एक ही प्रसंग से हम कल्पना कर सकते है की मेरी बडी माँ भी हिंमत की कितनी मजबूत होगी.
मेरा जन्म होनेके बाद मुझे जबसे समझ आने लगी थी तबसे मै बडी माँ के संपर्क मे आने लगा था. तब बडी माँ पचास पचपन के उपर के उम्र की होगी. उनके मकान के सामने के हिस्सेमे टिन के पत्रो की छपरी बनी हुयी थी. उस छपरी मे बडी माँ का पलंग हमेशा के लिये बिछा हुआ रहता था. उस पलंग पर निचे पाँव लटकाते हुये बैठी हुयी बडी माँ की गले भर सोने के गहनो से लदी हुयी पिली धम मुर्ती आज भी मेरे आँखो के सामने आ धमकती है और मुझे पुछने लगती है, "क्यों रे वो काले मुँह को कहां गयो ?". बडी माँ मेरे बडे भाई को "काले मुँह को" कहकर पुकारती थी, क्योंकी कृष्ण कन्हैया सावला जो था. बडी माँ के लिये मेरा बडा भाई कृष्ण कन्हैया था और खुद यशोदा मैया थी.
मेरा बडा भाई जो मुझसे दो साल बडा था, उसे बडी माँ ने गोद लिया था. बडी माँ हरदम बडे भाई की ही खोज खबर लेते रहती थी. मै भी उसी को खोजते हुये बडी माँ के घर के आसपास मे घुमते रहता था. बडी माँ को कोई चिज की आवश्यकता पडी तो मै तत्परता से उनका काम कर देता था. बडी माँ को श्वास की तकलिफ होते रहने से वह बैठे बैठे ही नोकरो से या हम बच्चोसे बहूत सा काम निपटा लेती थी. सिर्फ खाना बनाने का काम बडी माँ अच्छी तरह निभाती थी. सण त्योंहार के दिन तो मुझे बडी माँ के घर का निमंत्रण रहता ही था. बडी माँ को पुरण पोली का खाना जादा पसंद था. पुरण पोली पर असली घी और शक्कर लेकर उसे आम के रस के साथमे खाना उन्हे बहोत पसंद था. हर दिन के गिले कपडे बडी माँ धोबी को घर बुलाकर ही धोने देती थी. बदलेमे धोबी रोटी सब्जी लेकर खुश रहता था. उस जमाने मे, गले भर सोना और पैरोमे शेर भर चांदी पहनी हुयी बडी माँ के कोई बात को, ना कहने की हिंमत किसीमे भी नही थी. मेरे पिताजी उन दोनोसे उम्र मे दस पंधरा साल छोटे थे और मेरे दादाजी पिताजी के बचपन मे ही स्वर्गीय होने से बडे पिताजी और बडी माँ ने ही उनका शादी ब्याह कराया था. मेरे पिताजी उन दोनो के लिये लछमन जैसे थे. जो निर्णय रामने लिया, उसे छोटे लछमन ने कभी टाला नही. इसी कारण दो घरोमे रहते हुये भी दोनो भाई ने आखिर तक जमिन जायदाद एक ही मे रखी थी. बडे पिताजी और बडी माँ की कोई बात को टाला ऐसा मेरे पिताजी के बारेमे कभी नही हुआ.
बडी माँ के मायके वालो का परिवार भरा पूरा और बडी संख्या वाला था. उनको भाई भतिजे और चार बहने भी थी. वे भी समय समय पर हमारे गाँव आते जाते रहते थे. भतिजो मे से दो भतिजो की शादी बडी माँ ने हमारे गाँव के पास के लडकीयो से करा देनेसे उनके दो भतिजे हर साल महिना पंधरा दिन रहने के लिये हमारे घर आते थे. मै छोटा था. उन सबकी बाते अभितक मुझे याद है. दोनो भतिजे देव धरम को मानने वाले थे. बडे वाले भतिजे को रामायण महाभारत का ज्ञान भरपूर था. "रघुकूल रित चली आयी, प्राण जाई पर वचन न जाई" इन आचार विचारो के बडे भतिजे थे. यह बाते उनके बोलचाल मे से स्पष्ट झलकते रहती थी.
मुझे बचपन से ही ज्ञान की बातो मे बहूत ही रूची रही है. इस कारण मुझे उन दोनोका संपर्क जादा मिलते रहा. छोटे वाले भतिजे को मेरा साथ अति प्रिय होनेके कारण वे भी मुझे हर समय साथमे ही रखा करते थे. वैसे देखा जाये तो दोनो भतिजे मेरे पिताजी के उम्र के होंगे. छोटे भतिजे भी रामायण के ज्ञानी थे परंतु साथमे उस ज्ञान को वे आज के व्यवहारिकता की जोड देते रहते थे. दोनो भतिजो का अलग अलग समय मे हमारे घर आना, मेरे जिवन को एक आध्यात्मिक मोड देकर गया. जिसने मेरे व्यक्तित्वमे मिठास भर दियी. मै उन दोनो भतिजो के सामने जिवनभर नतमस्तक होते रहूँगा.
To be continued...........
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, कल एक विशेष घटना को फिर मिलते रहेंगे.)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें