मेरी यादें (Meri Yaden) :- भाग 18 (अठारह) : (सत्य घटनाओ पर आधारित) मेरी हायस्कूल की पढाई.......(Part One)
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मेरी हायस्कूल की पढाई.......
प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा, बडे पिताजी के बाडी मे का खल्ला, उनका घोडा, उसी तरह हरिनी गाय के बारेमे की यादो की जानकारी लियी. आज की यादोमे, मेरे हायस्कूल की पढाई के बारेमे कुछ बाते जाननेकी कोशिश करेंगे.
मेरे बडे भाई और उनके साथी बच्चों ने कक्षा आठवी पास करने के बाद हमारे गाँव के तहसिल वाले शहर के हायस्कूल मे पिछले वर्ष ही कक्षा नऊ मे प्रवेश ले लिया था. जब मै कक्षा नऊ मे गया तब वे सब लोग कक्षा दसवी मे पहूँच गये थे. मुझे प्रवेश के बारेमे जादा सोचना नही पडा. अनासायास ही मेरा उनके ही हायस्कूल मे कक्षा नऊ मे प्रवेश कर दिया गया था. सो मै उन लोगोंके पिछे पिछे कक्षामे जाने लगा. पढाई शुरू हो गयी थी. मेरे बडे भाई और उनके साथी बच्चों ने स्कूल वाले गाँव मे ही किराये से रूम कर लियी थी. उस रूम पर हम सब बच्चे अपने हाथसे खाना पकाकर खाते थे. सारा काम हमे खुद ही करना पडता था. हम दोनो भाई साथ ही रूम पर रहते थे. दोनो को कुँवे से पानी लाना, रूम की साफ सफाई करना, खाना बनाना यह सब काम हर दिन करने पडते थे. हम सुबह मे जादातर आलू की सब्जी और रोटी इतना ही बनाकर खाते थे. शाम को दाल चावल की खिचडी बनाकर खाने का नियम हमारा ठहरा हुआ था. मैने एन सी सी मे नाम दर्ज नही करनेसे मुझे स्कूल टिचरने ए सी सी मे ले रखा था. सो मुझे और भाई को हर दिन सुबह सात से आठ बजे तक स्कूल मे परेड के लिये जाना पडता था. परेड के लिये स्कूल से खाकी शर्ट और हाप पँट के दो जोड मिले हुये थे. उन कपडो का उपयोग हम दोनो भाई पिक्चर देखने जाते वक्त भी कर लिया करते थे, क्योंकी थियेटर मे खटमल जो हुआ करते थे. रूम पर आने के बाद हम दोनो भाई हमारे खाकी कपडे झटक कर ही रूम मे प्रवेश करते रहते थे. क्योंकी हम दोनो भाई के कपडो मे टाॅकिज मे के खटमल आ सकते थे और हम दोनो उन खटमलो से बचना चाहते थे.
बडे भाई और उनके साथी बच्चे, छोटे गाँव से आनेके कारण, उन सबको फिल्म देखनेका आकर्षण बहूतही था. स्कूल वाले शहर मे उस वक्त एक ही सिनेमा टाॅकिज थी. वहां के थियेटर मे जो भी फिल्म लगती, सब बच्चे पहले ही दिन फिल्म देखा करते थे. उनके साथ मै भी पिक्चर देखने जाने लगा था. पिक्चर की तिकीट सिर्फ चार आना थी. गाँव से हम दोनो भाई एक ही सायकल पर हप्ते भर का सिधा आटा लेकर हर सोमवार सुबह मे पहूच जाते थे. हम दोनो भाई को खर्च करने घरसे मिला हुआ एक एक रुपया जिसे हम हप्ते भर मे बचा बचाकर खर्चा करते रहते थे. हम चाय भी कभी नहीं पिते थे. सिर्फ दोनो समय का खाना खानेमे ही हमे बडा आनंद मिल जाता था. उसी समय थियेटर मे "भाभी की चूडीयाँ " फिल्म लगी थी. हम सबने पहले ही दिन उस फिल्म को देखा. उस फिल्म मे अभिनेत्री ने भाभी के रोल को बहूत ही उत्कृष्टता से निभाया था. भाभी नये घरमे आते ही उस घरको मंदिर बना देती है. सुबह उठकर उसका तुलसी बिंद्राबन के पास रांगोली दालते हुये, ज्योती कलस छलके..... गीत को गाना, हमारे मन को भा जाता था. उसे कोई बच्चा नही था. वह देवर को ही बच्चा मान लेती है. परंतु कुछ दिनो बाद उसे खुदका बच्चा होनेके समय अचानक उसकी तबियत बिघड जाती है. वह बच्चे को जन्म देती है, परंतु उसकी जान चली जाती है. भाभी के चिता के राख मे देवर को जब चूडीयाँ मिलती है तो देवर उसे देखकर फूट फूटकर रोता है. इस दुःखद प्रसंग को देखकर मै भी खूब रोया था. यह प्रसंग मै आज तक भुला नही हूँ. हमे पता है की यह प्रसंग काल्पनिक है. फिर भी उसे बडे ही उत्कृष्टता से फिल्माने से दर्शक उसे कभी नही भूला पाते.
To be continued......
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)🙏🙏🙏
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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