मेरा टिचर की नोकरी का साल और गोरक्षण की देखरेख......(सत्य घटनाओ पर आधारित 1967-68 मे घटी घटनाये ) (Part Two) प्यारे पाठको, पिछले भागमे मेरी यादों के माध्यम से हमने देखा की, मै नोकरी के समय मे गोरक्षण की गायोसे संबंधित काम देखने के लिये वही पर रहने चला गया था. अब चरवाहा भी अच्छे से अपना काम करने लगा था. गोरक्षण के हाॅल मे साधु लोगों के प्रवचन और सत्संग हर पंधरा दिनो मे होते रहते थे. मै भी उन सत्संगो मे जाकर बैठता था. सत्संगो के कामो मे मै हर प्रकारे सब की मदत करता था. सत्संग सुनने माताये, पिताजी और बच्चे लोग सभी आते रहते थे. उन सभी की सहानुभुती मैने पा लियी थी. उन्ही के बच्चे मेरे पास ट्युशन मे पढाई करने आने लगे थे. उन बच्चों से मैने ट्युशन की फीज् लेने को मना कर दिया था. आगे की घटनाये मेरी यादों के माध्यम से अब हम देखने की कोशिश करेंगे. गोरक्षण की बडी सी औरस चौरस बिल्डिंग मे उपरी मंझिल पर के रूम मे मै सिर्फ अकेला ही रहने वाला था. सुबह मे निचले हिस्से मे हिंदी प्रायमरी स्कूल की क्लासेस भरती थी. उनके प्रति मेरी सहानुभूती दिखने पर हिंदी प्रायमरी वाले भी मुझे मानने लगे और अच्छेसे सहयोग भी देने लगे. उनकी हिंदी भाषा की पढाई मुझे बहूत ही अच्छी लगने लगी. मेरी शुरू से ही पढाई मराठी भाषा मे होने के कारण उन हिंदी भाषिक शिक्षको के मुँह से निकले मृदु और मिठे हिंदी शब्द मेरे कानो मे संगीत घोलते रहते थे. हर सुबह उन लोगोंके अध्यापन से मै अच्छी तरह वाकिफ हो गया था. उनके हिंदी साहित्य ने मुझे अपनी ओर आकर्षित कर लिया था. उस भाषा के अभ्यास मे मुझे आगे बढने के लिये मैने हिंदी "कोविद" पदवी परिक्षा का फाॅर्म भी भर दिया था. जिसका परिक्षा सेंटर मेरे ही हायस्कूल मे लिया जा रहा था. मै फुरसत के समय स्कूल के लायब्ररी मे जाकर हिंदी साहित्य की किताबे पढने घर ले आता था. "कोविद" परिक्षा के अभ्यासक्रम मे वाल्मिकी "रामायण" और रामधारी सिंह दिनकर जी की कविताओ पर के कुछ विशेष भाग का अभ्यास करना था और उसीसे संबंधित सवालो के जबाब लिखने होते थे. इस "कोविद" पदवी परिक्षा के निमित्त मेरी हिंदी साहित्य की पढाई हो रही थी. मेरे मुँह से हिंदी भाषिक संवाद सहज ही निकलने शुरू हो गये थे. साहित्य पढने मे मुझे बडाही आनंद मिलता था. आखिर मैने हिंदी "कोविद" की पदवी अच्छे नंबरो से पास कर लियी थी.
हायस्कूल मे अब धुपकाले की छुट्टीयाँ समाप्त होकर क्लासेस रेग्युलर शुरू हो गये थे. मेरे टेबल वाला क्लर्क अभी तक ड्युटी पर नही आया था. इस कारण मेरे पास टेबल वर्क भी था और अबसेंटी वाले टिचर के खाली क्लासमे जाकर, बच्चों को एंगेज भी करके रखना होता था. इस काम मे मुझे एच. एम साहब का बहूत ही सहयोग हर क्षण मिलता था. क्योंकी मै जो डबल काम कर के उनकी सरदरद कम कर रहा था. उनके बताये किसीभी काम को "नहीं" कहने की मेरी आदत नहीं थी. यही वजह थी की, मै वहां दिनो दिन एच. एम साहब का दाहिना हात बनते जा रहा था. वहां का पुरा टिचर्स स्टाॅफ मुझे उनका सदस्य मानने को तैयार ही नही थे क्योंकी मै एच. एम साहब को पूरा सहयोग दे रहा था. मेरे मित्र के मुझे स्कूल मिलने आनेपर एच. एम साहब मेरी अच्छाईयाँ उसके पास बयान करते थे. जिससे मेरा उत्साह और भी बढते गया. एच.एम साहब को मेरा पूरा भरोसा आ गया था. मुझे हायस्कूल के सब विभागो की देखरेख करनेके अधिकार एच.एम साहब से मिले थे. जिस कारण पूरा स्टाॅफ मेरे दूरसे फटकने लगा था. यह बात मेरे समझमे आ गयी थी. मै भी मेरी मस्ती मे चूर होकर प्रामाणिकता से ड्युटी कर रहा था.
मै सुबहमे चाय नहीं पिता था. दंड बैठको का व्यायाम करने के बाद, सुबह का निकला हरियानवी गायोका ताजा दुध, छह केले और चार गेहूकी रोटी खाने से ही मेरा पेट भर जाता था. फिर शाम मे वही क्रम मुझसे दोहराये जाता था. इतने खुराक के अतिरिक्त मुझे दुसरे कुछ की भी आवश्यकता नहीं पडती थी. इतने से ही दिन भर का काम करते रहने मे मुझे आनंद मिल जाता था. मेरी फिजिकल फिटनेस पर किसीभी बातका असर पडता नहीं था. एच एम साहब को कोर्ट मे तारीख पर, या जिले के किसी भी ऑफिस मे कोई भी कामसे जाना हो तो मै उनके साथ कम्पलसरी होता ही था.
To be continued ......
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र )
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
🙏🙏🙏🙏🙏
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