मेरी यादें (Meri Yaden) :- भाग 39 (उनचालीस): मै टिचर कैसे बना ? ( 1967-68 के दरम्यान घटी हुयी घटनाये)
(Part One) प्यारे पाठको, मेरी यादों के माध्यम से, पिछले भागमे हमने देखा की, मै फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस मे टायपिस्ट की नोकरी करने लगा था. उसके साथमे ही युनिव्हर्सिटी की परिक्षा भी दे रहा था. फुरसत मे मै "एस" वकील काकाजी से भी मिलने जाता था. मेरे फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस के मॅनेजर साहाब मुझे परिक्षा के लिये परमिशन देने को तैयार नही थे. अब हम देखेंगे आगे की घटी घटनावो के बारेमे....... उन दिनो छुट्टीमे मै गाँव जाकर मेरे दोस्तो से मिलता था. उनमे से मेरे दो दोस्त उम्र और अनुभव मे मुझसे बडे थे. बातचीत के दौरान वे मुझे मेरे वर्तमान की नोकरी की कमियाँ गिनाते रहते थे और उसके कम्प्यारिजन मे सरकारी नोकरी के फायदे भी गिनाते थे. उनका कहना मुझेभी पटने लगा था. परंतु यह भी बात पक्की थी की, बिना ट्रेनिंग की सरकारी नोकरी मिलना मुश्किल ही था. उन्ही दो मित्रो ने ही मुझे टिचर बनने की भी सलाह दि थी. जिसे मैने मन ही मन मे पूरा करने का भी निश्चय कर लिया था. उसी दरम्यान मै "एस" वकील काकाजी से मिलने गया और उनके पास टिचर्स ट्रेनिंग के लिये मेरा प्रवेश करा देने की भी बात कही. उस बातको उन्होने खुशी से स्वीकृती भी दियी. मैने फिर सारी प्रक्रिया पूरी कराने के बाद मेरा नंबर टिचर्स ट्रेनिंग के लिये लगा. इस तरह मै फिल्म डिस्ट्रिब्युशन ऑफिस की टायपिस्ट की नोकरी छोडकर भविष्य का मास्टर बनने के लिये चला गया.
इस तरह, मेरा मास्टर की का ट्रेनिंग शुरू हो गया. मेरा नंबर होस्टेल मे भी लग गया था. हम सब लोगोको होस्टेल कंपलसरी होनेसे सब ट्रेनी लोगों को वही रहना पडता था. वहां के होस्टेल मे रहने वालो की भोजन की व्यवस्था मेस के माध्यम से करायी जाती थी. होस्टेल का सुत्र संचालन प्रिन्सिपल साहाब के नियंत्रण मे चलता था. संपूर्ण ट्रेनी लोगोंको होस्टेल के चार ब्लाॅक मे रहने के लिये व्यवस्था कियी गयी थी. हर ब्लाॅक का एक (नायक) प्रिफेक्ट बनाया जाता था. इन चारो प्रिफेक्ट की देखरेख मे, मेस का व्यवस्थापन (देखरेख) करने के लिये एक मॅनेजिंग (बाॅडी) कमिटी नियुक्त किये जाती थी. उसमे और भी उप कमिटीज् हुआ करती थी. उन कमिटीयो के माध्यम से ही पूरे मेस का संचालन हुआ करता था. उस समय हमारा महिने भर का मेस का (खाने का) खर्च सिर्फ पचीस से तिस रूपये के आस पास हो जाता था. हम लोगोंको गव्हर्नमेंट की ओरसे पंधरा रूपये हर महिने स्टायपेंड भी मिलता था. उसमे पंधरा बिस रूपये और लगते थे. जिसमे हमारा महिने भर का गुजारा हो जाता था.
मेरा नंबर होस्टेल के "बी" सेक्शन मे लगा था. हर रूम मे दो ट्रेनी साथ साथ मे रहने वाले थे. मेरे साथ भी जिला अकोला से आये कॅन्डिडेट का नंबर लगा था. मेरा साथीदार मेरे ही हम उम्र का इंसान था और स्वभाव से भी मेरे जैसा ही था. मै जल्दी ही उसके साथ घुल मिल गया. उसी तरह कुछ और भी दोस्त लोग मुझे वहां मिल गये. जिनके साथ मै मेस मे खाने के लिये जाता था उसी तरह काॅलेज और बाहर सिटी मे भी घुमने जाया करता था. उन सब दोस्तो मे से एक मित्र मेरे गाँव के नजदिक का ही रहने वाला था. जिससे मेरी घनिष्ठता बहूत ही बढ गयी थी. उसने मेरे साथ की मित्रता को आगे भी जिवन भर निभाया है. वह मित्र मेरे से उम्र मे आठ दस साल बडा था और बाल बच्चे वाला अनुभवी इन्सान था. उसका साथ मुझे आगे जिवन भर मिलते रहा. मेरे आगे के जिवन मे साथ घटी बहोत घटनाओ का वह साक्षीदार रहा है. ये सब घटनाये चित्रपट मे घटे प्रसंगो के समान मुझे आज भी याद आ रहे है. जिनकी चर्चा हम आगे के भागमे निश्चित ही करते रहेंगे.
To be continued.
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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