मेरी यादें :- भाग 41 (एकतालीस) : मै टिचर कैसे बना? होस्टेल की दिनचर्या : ( सन 1967-68 की घटी घटनाये) (Part Three) -
प्यारे पाठको, मेरी यादों के माध्यम से पिछले भागमे हमने देखा की, मेरा मास्टर की का ट्रेनिंग शुरु हो गया था. साथ मे ही मेरा फिजिकल फिटनेस के लिये व्यायाम करना भी शुरू था. जिससे मै पहलवानो जैसा दिखने लगा था. साथी दोस्त लोग मुझे पहलवान कहके पुकारने लगे थे. मेरी पर्सनॅलिटी और अँटिट्युड मे उल्लेखनिय सुधार होते दिख रहा था. मेरा बहूतसा समय लायब्ररीमे और फिजिकल फिटनेस के लिये जा रहा था. अब हम आगे की घटनाओ के बारेमे जाननेकी कोशिश करेंगे.
इस तरह से मेरी टिचर्स ट्रेनिंग की दिनचर्या होस्टेल मे रहते हुये चल रही थी. दिपावली की छुट्टीयो मे जब मै गाव गया था तब, पिछले साल मुझे एक माह के इंजेक्शन कोर्स लेने की सलाह देनेवाले डाॅ. साहाब से, मै अचानक ही मिलने चला गया. मैने डाॅ. साहब से मेरी तबियत का चेकअप करने की विनंती करने पर डाॅ. साहब ने मुझे देखकर, मेरा परिचय पुछ लिया. आप कौन हो? और कहां से आये हो ? इन प्रश्नोके जबाब मे मैने उन्हे, "मै आपका पिछले वर्ष का पेशंट" जब बताया तो वे अवाक् से रह गये. मेरा चेकअप करने की कोई आवश्यकता नही कहकर उन्होने मुझे बताया की वे मुझे, "काश्मिर से आया हुआ इंसान" समझ रहे थे. परंतु मेरा परिचय सुनने पर मेरे बारेमे की उनकी शंका मिटी. तब मेरी समझमे एक बात आ रही थी की अगर इंसान दवा गोली इंजेक्शन की बजाय शुद्ध हवा, पानी, व्यायाम और योग्य भोजन के तरफ ध्यान देता रहे तो बिमारी से बचा रह सकता है और अगर बिमारी आ भी जाये तो न घबराते हुये इनका प्रयोग करके हम हमारे हालात मे सुधार ला सकते है.
पुरे सालमे मै लायब्ररीमे जाकर सिर्फ सायकाॅलाॅजी की और फिजिकल फिटनेस की ही किताबे पढता था. जिसका परिणाम यह हुआ था की, कोई भी घटना की चिरफाड, मै सायकाॅलाॅजीकल दृष्टिकोन से ही करने लगा था. सिटी मे रास्ते से चलते वक्त भी मै नाक मुँहपर हात रूमाल बांधे रखता था. इसके पिछे एक ही कारण होता था की, कहीं रास्ते की धुल के साथ रोग के किटाणू मेरे शरीर मे प्रवेश ना कर जाये. उस जमाने मे मेरे दोस्तो को और सभी को मेरा ऐसा करना अति शिष्टता का वर्तन लगता था. फिर भी मै मेरे सिध्दांतो पर अडिग रहा. क्योंकी मेरा पहला प्रिफरन्स हेल्थ कमाना था. उसकी जगह मै कोई भी काॅम्परमाईज नहीं करना चाहता था.
मेरे इस स्वभाव विशेष को मेरे दोस्त भी अच्छी तरह समझ गये थे. उन्होने बादमे इस विषय पर बहस करनी भी छोड दि थी. ऐसे मे ही एक दिन मुझे लायब्ररीमे किताबे ढूंडते- ढूंडते पूजनीय श्री जनार्दन स्वामी की एक किताब पढने मिली. उस किताब का नाम अब मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा. फिरभी मेरे ख्याल से उसका नाम "आरोग्याची गुरूकिल्ली" हो सकता है. वह किताब मैने कई बार पढी. जिसका आशय यह था की, जंगल के पशू पक्षी जब भी बिमार पडते है तो वे कैसे बिमारी से दुरूस्त होते है ? उनके पास दवाखाना तो रहता नहीं, फिर वे दुरुस्त कैसे होते है ? इस बातको बारिकी से सोचने पर हमारे समझमे यह आयेगा की, जंगल के पशू पक्षी बिमारी की अवस्थामे चुपचाप पडे रहते है. न खाते है, न पिते है. कुछ दिन शरीर को आराम देने से वे फिर से तरोताजा होकर दाना पानी को खोजने निकल पडते है. वे किसी भी दवाखाने न जाते हुये भी निसर्ग के सहकार्य मात्रसे भले चंगे होना जानते है. और हम मनुष्य, अपने ज्ञान के घमंडमे निसर्ग ने हमे दि हुयी जिवनी शक्ती को न पहचान कर उसपर भरोसा न करते हुये भरकटने मे ही समाधानी रहते है. इस एक ही उदाहरण ने मेरे दिमाग मे बिजली सी चमका दि थी और फिर इन्ही तत्वोसे मिले जुले विचारो को मै लायब्ररीकी किताबो मे ढुंडने लगा था.
To be continued.........
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)
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