मेरी यादें : भाग 40 (चालीस) :- मै टिचर कैसे बना? होस्टेल की दिनचर्या :- (1967-68 के दरम्यान घटी हुयी घटनाये) (Part Two)
प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मै टिचर बनने के लिये मास्टर्स ट्रेनिंग काॅलेज मे भरती हो गया था. मेरा नंबर होस्टेल मे लगा हुआ था. होस्टेल मे रहते हुये मुझसे कुछ मित्र भी जुड गये थे. उन मित्रो की हिंमत से मेरी होस्टेल की दिनचर्या अच्छी तरह शुरू हो गयी थी. मुझे मिले इस संधी का मै पूरी तरह लाभ उठाना चाहता था. आगे घटी घटनाये हम अब मेरी यादों के माध्यम से देखेंगे.
होस्टेल के सेक्शन दो मे मै अब रूम पार्टनर के साथ रहने लगा था. हमारे काॅलेज का टाईम, दो पहर एक से चार बजे तक का होता था. चार बजने के बाद हमे स्थानिक स्कूलो के क्लास पर लेसन लेने जाना होता था. वहां स्कूलो मे हमे एक ट्रायल लेसन लेकर बताना होता था. जिससे हमारा काॅन्फिडेन्स बढने मे मदत मिलती थी. शुरू के दिनो मे मै जब लेसन लेने शहर के टाॅप के हायस्कूल मे गया था. तब शुरू मे मुझे कुछ भी पढाने का अनुभव नही था.
मै क्लास मे शर्ट की बाहे उपर शोल्डर तक मोडकर लेसन लेने पहूँचा ही था की अचानक उसी स्कूल के प्रिन्सिपल साहब का राउंड हुआ. प्रिन्सिपल साहब ने मेरी शर्ट की बाहे उपर शोल्डर तक मुडी हुयी देखी और देखते ही उन्होने मुझे ऑफिस मे बुलाकर सक्त ताकिद दि की, आप इस तरह के कपडे पहनकर लेसन नही ले सकते. यह सुनकर अब मै सकते मे आ गया. मुझे मन ही मनमे डर भी लगने लगा था. पिछले एक देड माह से मैने दंड बैठके मारकर बाॅडी बनाना शुरू कर दिया था. इस कारण मेरे दंड मजबूत होते जा रहे थे. मै शर्ट की बाहे उपर करके सामने वालो को थोडा इंप्रेस भी करना चाहता था. परंतु यह मेरे नशीब मे ही नही था. प्रिन्सिपल साहब के ताकिद से मुझे उसी समय दुसरे ट्रेनी साथी टिचर का शर्ट उधार लेकर पहनना पडा और लेसन लेना पडा. तब से ही मेरी अक्ल थोडी ठिकाने पर आते गयी. क्लास मे बच्चे टिचर का अनुकरन जल्दी ही करते है. चाहे वह उनके लिये नुकसान वाला ही क्यों न हो ? इसका कारण हमे सायकाॅलाॅजी मे बताया गया था और तबसे ही मेरी रुचि सायकाॅलाॅजी की किताबे पढने मे बढते गयी.
वहां के टिचर्स ट्रेनिंग काॅलेज मे आने के पहले तक मै खुदको फिजिकल फिट नहीं समझ रहा था. सो फिजिकल फिट बनकर दिखाना, यही मेन उद्देश वहां पर मेरा बनते गया. फिजिकली सोने मे परिवर्तीत होना यही ट्रेनिंग मे मेरा मेन शौक बन गया था. भाग्य से मेरा रूम पार्टनर भी इसी विचार से प्रेरित था. शुरू मे हम दोनो सुबह पाच बजे जागकर रनिंग करने हनुमान व्यायाम शाला के ग्राउंड पर जाने लगे. बादमे हमने व्यायाम शाला के अंदर हाॅलमे दंड बैठके मारना भी शुरू कर दिया. आगे कुछ महिनो बाद, हम दोनो पार्टनर आपस मे कुस्ती भी लढा करते थे. रनिंग और दंड बैठके मारकर होस्टेल आने के बाद मैने एक कच्चा अंडा और दुध पिना शुरू कर दिया. जिससे मेरी ताकद और वजनमे बढोत्तरी हो रही थी. मुझे अंदरसे भी मजबूत लगने लगा था. उसी के साथ मेरे रवैये मे बदलाव होते जा रहा था. मै पहलवानो जैसा बनते जा रहा था. मित्र मंडली भी मुझे "पहलवान" कहके पुकारने लगे थे. उस पूरे साल मे मैने कभी होस्टेल के कँटीन की चाय और नास्ता लेकर नही देखा था. क्योंकी दुध अंडा लेनेके बाद ग्यारह बजे मेस मे खाना खाने जाना होता था. इधर उधर का खाने की कभी मुझे आवश्यकता ही नहीं पडती थी. फिर जानबुझ कर मै क्यों पैसे और आरोग्य खराब करता. काॅलेज का समय छोडकर मेरा सारा समय लायब्ररी मे और फिजिकल फिटनेस के कामो मे ही जाता रहता था. सिर्फ भोजन करके आने के बाद बारा से एक बजे तक मै निंद भी लिया करता था और बादमे काॅलेज क्लासेस के लिये हम निकल पडते थे.
काॅलेज क्लासेस मे, मेस का भोजन भरपेट खाने से मुझे निंद की झपकी आने लगती थी. जिससे लेक्चरर महोदय का पढाना मेरे सिर के उपर से जाता था. फिर भी मै लेक्चर ध्यान देकर सुनते रहता था. शुरू से ही दिमागी शार्प रहनेसे, पढाई मे मै लोगोंके पिछे नहीं था. लेक्चरर महोदय मेरी पर्सनॅलीटी और अँटिट्युड देखकर हर वक्त मुझे सराहते रहते थे. जिस कारण मेरा काॅन्फिडेन्स और भी बढने लगा था.
To be continued.......
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
🙏🙏🙏🙏🙏...........
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें