प्यारे पाठको, पिछले भागमे मेरी यादो के जरिये हम ने देखा की, मुझे पास वाले शहर के हायस्कूल मे, नोकरी लग गयी थी. वहाँ पर एच.एम साहब के मित्र श्रीमान बी.एम साहब हर रोज दोपहर मे एच. एम साहब से मिलने आते थे. वे मुझे काम करते हुये जाचते रहते थे. उन्हे गोरक्षण के लिये बिन पगारी सुपर वायझर की आवश्यकता थी. मुझे भी रहनेके लिये जगह चाहिये थी. बी.एम साहब ने हमारे एच.एम साहब से उस सुपरवायझरी के बारेमे बात कही थी. दोनोने भी सत्य परिस्थिती बताने पर मुझे गोरक्षण मे फ्री मे रहने को मिलने वाला था. बदलेमे चरवाहे ने सुबह शाम निकाले हुये गायो के दुधका हिसाब मुझे रखना था. अब हम आगे की घटनाये मेरी यादों के माध्यम से देखने की कोशिश करेंगे.
मैने बी.एम साहब से गोरक्षण के "बिन पगारी फुल अधिकारी" सुपरवायझर का काम खुशी से करने के लिये हाँ कह दिया. मेरे रहने का प्रश्न छुट गया था. मै दुसरे ही दिन गाँव से खाने पिने का और ओढने बिछाने का सामान गोरक्षण मे ले आया. अध्यक्ष महोदय ने गोरक्षण मे आकर मुझे रहने की रूम भी बता दियी और चरवाहे को भी, गायो से निकाले दुधका हिसाब मुझे देने की हिदायत दे दि. चरवाहा मुझे देखते ही मन ही मन मे डर सा गया था. जो अब तक गोरक्षण मे बिना दिक्कत उसका ही राज चलते आ रहा था. अब मेरे होते हुये उसकी मनमानी नहीं चल सकेंगी यह वह जान गया था. मुझ पर प्रभु राम के और महात्मा गांधीजी के विचारों की पकड इतनी पककी थी की, मै चाह कर भी असत्य या झुट के फेरे मे नही पड सकता था. शुरू मे चरवाहे ने मुझे लालच देने की थोडी बहूत कोशिश कि लेकिन बादमे मेरा स्वभाव देखकर वह सिधा हो गया. गोरक्षण की बिल्डिंग सिटी मे मौके की जगह पर पाच छह हजार औरस चौरस फुट जगह मे दो मंझिलो मे (दो मजली) थी और अंग्रेजी हुकूमत के आखरी दौर मे बनी जैसी लगती थी. सामने बिल्डिंग और पिछेमे गायो के लिये तिन चार हजार फूट का बडे क॔पाउंड से बना हुआ गायवाडा था. जिसमे पिछे के बडे से गेट मे से गाये आती जाती रहती थी. मै जब गोरक्षण मे रहने गया तब बीस पचीस हरियानवी गाये और उनके दस पंधरा बछडो की देखभाल चरवाहा हर दिन करता था. उनमे से दस से पंधरा गायोका दुध चरवाहा सुबह शाममे निकालता था. बिस पचीस लिटर दुध एक समय मे गायोसे मिलता था. गायोसे निकाले उस दुध की रशीद मुझे साइन करके चरवाहे के पास देनी होती थी. चरवाहा दुध और रशीद अध्यक्ष महोदय के घर पहूँचा देता था और फिर दस बजे के दरम्यान गायो को चराने जंगल की तरफ ले जाता था. मेरा काम दिखने मे कठीण लगता है. परंतु बचपन से मै गायोके साथ ही पला बढा होनेसे मुझे वह काम जैसा लगता ही नही था. सब काम चरवाहा करने वाला था. मुझे तो सिर्फ उसके काम पर नजर रखना था और दुधकी रशीद साइन करके देनी होती थी.
जो मेरे बाये हात के काम जैसा था.
गोरक्षण मे उपर के मजले पर दो सौ लोग बैठ सके इतना बडा हाॅल था. उस हाॅल मे हर पंधरा दिनोमे कोई ना कोई सत्संग होता था. मै भी वहां सत्संग मे जाकर बैठने लगा और उन लोगों को किसी भी काम के लिये मदत करते रहता था. जल्दी ही मैने सत्संग मे आनेवाले भक्तो की सहानुभुती पा लियी थी. सत्संग मे महिलाये, पुरूष और बच्चे सब आते रहते थे. उन दिनो उनके द्वारा दिया हुआ प्रसाद, मुझे खाये नहीं जाता था. उपर से साधु महाराज जी को भक्तो ने दिये हुये फल फलावर भी मुझे मिलते रहते थे. जो मुझे तिन चार दिनो तक पुराते थे. इस तरह मेरा मेल मिलाप उन लोगों मे बढ गया था. उसमे से कई लोगोंके बच्चे हमारे हायस्कूल मे ही पढ रहे थे. उन्होने बच्चों की ट्युशन लेने की बात पुछने पर मैने बिना दिक्कत ही सबसे हाँ कह दिया. उन सबके बच्चे शाम के वक्त ट्युशन के लिये मेरे पास आने लगे. मैने बिना कुछ पैसे लेते हुये ही बच्चोंको पढाना शुरू कर दिया था. किसी विद्यार्थी से पैसे लेकर उसे पढाना मेरे तत्वमे बैठने वाला काम नही था. और कुछ पैसोके बदले अपनी विद्या का दान करना भी मेरी नैतिकता मे बैठनेवाली बात नही थी.
To be continued......
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)🙏🙏🙏
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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