मेरी यादें :- भाग 42 (बयालिस) : मै टिचर कैसे बना ? होस्टेल की दिनचर्या और नोकरी की शुरूवात 1967-68 के दरम्यान घटी हुयी घटनाये : (Part Four)
प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मै फुरसत के समय काॅलेज की लायब्ररीमे जाकर बैठता था. वहां से मै सायकाॅलाॅजी की और हेल्थ से संबंधित किताबे लाकर पढते रहता था. ऐसे ही एक दिन मुझे पुजणीय जनार्दन स्वामी की एक किताब पढने मिली थी. उसमे मुझे एक बहूतही अच्छा विचार पढने मिला था. स्वामीजी के उसी विचारने मुझे अज्ञानता के अधेंरे से बाहर निकालकर भरकटने से बचाकर रखा. आगे की घटनाये, अब मेरी यादों के माध्यम से, हम देखने का प्रयत्न करेंगे.
"आरोग्याची गुरूकिल्ली" यह किताब उस समय मुझे पढने जो मिली, इस बातके लिये मै ईश्वर को मनःपूर्वक लाख लाख धन्यवाद देता हूँ की, हे प्रभो, आपने मुझे मेरे अगले जिवन मे आनेवाली "आ बैल मुझे मार" की झंझटोसे बचा लिया और यह बात सौ फिसदी सच भी साबित हुयी. मै मेरा इलाज जंगली पशू पक्षी वो का अनुकरन करके ही करते रहा और पैसो की, समय की बचत भी करते रहा. हालाकी मेरे जिवनमे अनेक उतार चढाव आते रहे फिरभी मैने कभी भी आत्मविश्वास को ढलने नहीं दिया. मै आज भी उन विचारो पर कायम हूँ. चाहे मुझे कोई बॅकवर्ड कहे या फारवर्ड कहे मै मेरी जगहपर अडिग ही रहना चाहता हूँ. क्योंकी ईश्वरकी कृपा और मेरे भाग्य से मुझे शरीर रूपी अनमोल धन मिला है. इसलीये खुद के लिये निर्णय लिजिये, ईश्वर आपका साथ कभी नहीं छोडेंगे.
अब हम आगे की घटनाओ के तरफ मुडेंगे. ट्रेनिंग के सालमे कृषी विद्यापीठ होने के लिये आंदोलन भी हुआ था. उस आंदोलन के एक हप्ते चलते सिटी मे कर्फ्यू लगाया गया था. किसी को भी घर के बाहर निकलने की अनुमति नही थी. हमारे होस्टेल और काॅलेज की पढाई बंद पड गयी थी. मेस मे भोजन तयार करने मे लगने वाली आटा सब्जी जैसी चिजे समाप्त होते जा रही थी. हम सब ट्रेनी लोग विचार मे पड गये थे. अगर यह कृषी विद्यापीठ आंदोलन अनगिनत दिनो चलते रहा तो सब पर भुखे रहने की नौबत ना आ जाये. इन सब बातो को ध्यान मे लाकर हम सब लोगोने दोनो समय दाल चावल की खिचळी खाकर दिन पास करने का निर्णय लिया और उसी निर्णय की तामिली करते हुये हम सब ने भगवान की कृपा से वे कठीण दिन आगे धकलाये थे. भगवान की कृपा से आंदोलन सिर्फ एक हप्ते ही चला था, लेकिन उस एक हप्ते ने हर इंसान को दाल आटे की किंमत क्या होती है यह बता दि थी. एक हप्ते के आंदोलन मे सरकारी मालमत्ता का बहूत नुकसान हुआ था. संभलने मे आगे कई साल लग गये. हम फिर हमारे रूटीन के कामोमे शुरू हो गये थे. मेरा रूटिन सुबह पाच बजे रनिंग और दंड बैठके मारकर शुरू होता था. फिर अंडा दुध और उपरसे दो केले नास्ते मे मै हर सुबह लेता था. होस्टेल के कँटीन मे मुझे कभी जाना नही पडा. बाकी ट्रेनी टिचर लोगोका कँटीन के महाराज के पास उधारी खाता होता था. महिना भरने पर बिचारा महाराज भी इन लोगोंके तरफ चक्कर लगा-लगाकर थक जाता था. और आखिर मे प्रिन्सिपल साहाब के तरफ जानेकी धौस देने पर ही महाराज की उधारी वसुल होती थी. ऐसे लोग गिनती के ही थे, फिरभी बहूत भारी लगते थे. हम दोनो पार्टनर इन झंझटोसे काफी दूर थे और पडना भी नही चाहते थे.
To be continued......... धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर. (महाराष्ट्र)🙏🙏🙏.....
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)
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