"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) :- भाग 68 (अडसठ) : "मेरे पिताजी की बिमारी ने मेरी सोच को कैसे बदल दिया."... (1971-72 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित घटनाये.) ( Part One).

           मेरी यादें  (Meri Yaden) :- भाग 68 (अडसठ) : "मेरे पिताजी की बिमारी ने मेरी सोच को कैसे बदल दिया."... (1971-72 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित घटनाये.) ( Part One).

       प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, मेरे पत्नी को "नोकरी के गाँव" की "हवा" रास न आने से उसे "टाईफाईड" की बिमारी ने जकड लिया. बडी मुश्किल से मेरी पत्नी उस बिमारी से बाहर आयी थी.

आगे की घटनाये, मेरी यादों के माध्यम से अब हम देखेंगे. 
             मेरी पत्नी की तबियत मे बडी मुश्किल से सुधार हुआ था. उसे मै दिपावली की छुट्टीयो मे गाँव लेकर गया. वहां की " हवा पानी" ने उसकी तबियत मे बडा ही "चमत्कार" कर दिखाया था. उसकी तबियत फिर पहले जैसी ही हो गयी. लेकीन "मेरे पिताजी" की तबियत दिनो दिन बिघडती जा रही थी. उनको "नागपूर" के बडे हाॅस्पिटल मे भरती करा दिया था. पिताजी के गैरहाजिरी मे घर का "कारोभार" मेरे बडे भाई देखने लगे थे. बडे भाई साहब की मित्र मंडली खाने पिने वाले "वस्तादो" मे से थी. मेरे बडे भाई साहब उन सबमे जादा पढे लिखे थे. हमारी "जमीन जायदाद" भी उन सबसे अधिक थी. वे लोग नहीं चाहते थे की, हमारा कारोबार उपर बढता जाये. "बडे भाई साहब" उन लोगोंके चंगुलमे पुरी तरह फ॔स गये थे. किसी भी तरह "सुधार की बात" उनके समझमे नही आती थी. मेरे बडे पिताजीकी भी बहुतसी "जमिन जायदाद" थी. उनके नाम की जमिन उन्होने बडे भाई साहब को "गोद" लेते ही उनके नाम पर भाई के बचपन मे ही कर दियी थी. मै नोकरी पर दुसरे गाँव जाने से मेरा "अस्तित्व" गाँव मे, शुण्य के बराबर हो गया था. मुझसे छोटे भाई बहन सब "नासमझ" थे. पिताजी की बिमारी से बडे भाई साहब और उनकी "वस्ताद मंडली" मिले हुये संधी का, पुरा फायदा उठा रहे थे. यह सब मुझे आँखोसे दिख रहा था. समझ भी रहा था. परंतु मै कुछ भी कर नहीं सकता था. मानसिकता से, मै अंदर ही अंदर कमजोर होने लगा. मै "फिजिकल" रूप मे "नोकरी के गाँव" मे था, लेकिन मानसिक रूप से "गाँव घरकी हालातो" मे और "पिताजी की बिमारी" मे  ही "चक्कर" लगाते रहता था. उन दिनो "मोबाईल" फोन भी नहीं थे. संदेशो का आदान प्रदान पोस्ट ऑफिस के माध्यम से करने पडता था. "चिठ्ठी पत्री" आ भी जाये तो, इस बात की चिंता लगी रहती थी की, कही कोई "चिंतनिय" घटना तो नही घटी होगी ? दिलमे "धकधकी" सी लगी रहती थी. मन ही मन मै इश्वर चिंतन करने लग जाता था. 
            थोडे दिनो बाद, पत्नी और छोटे भाई को घर छोडकर, पिताजी की तबियत देखने मै नागपूर चला गया. सुबह ही,  पिताजी को देखने जब मै अस्पताल पहूँचा, तो मुझे देखते ही "पिताजी रोने लगे". बेटे के सामने अगर उसके "पिताजी  की आँखोसे आँसू" निकल रहे है तो इससे बडा "दुःखद प्रसंग" बेटे के लिये दुसरा कोई नहीं हो सकता. उनको इस तरह रोते देखकर मुझे बहूतही बुरा लगा. "मै भी रोने लगा". हम दोनो "पिता पूत्र" को रोते देखकर हमारे "सालदार" मियाँ ने हमारे नजदिक आकर,  कुछ "धाडस" की बातो से हम दोनो को समझाया और चूप कराया. फिर मैनेभी पिताजी को हिंमत देते हुये "घर की आस" बताई. घर की याद मे पिताजी को थोडा अच्छा लगा और वे अच्छेसे बात करने लगे. लेकीन मैने डाॅ. साहब से संपर्क कर, पिताजी की "बिमारी" के बारेमे जब पुछां, तब डाॅ. साहब ने "कोई आशा नहीं" की बात मुझसे कह दियी. यह बात सुनते ही मेरे पैरो के निचे "भुचालसा" आने लगा. मेरे छातीमे "धस् सा" होने लगा. उस समय कैसा करके भी मैने खुदको सवारा और पिताजी की एक बार फिर मुलाकात लेकर, वहाँ जादा समय को नही ठहरते हुये, मै वापिस नोकरी के गाँव आ गया. तब से मेराभी "मानसिक संतुलन" बिघडे जैसा ही हो गया था. अपने समाज मे मनकी भी कोई बिमारी हो सकती है इस बात पर किसीका भरोसा ही नहीं बैठता. बहूत ही हुआ तो "मानसिक बिमार" को "झाड फूँक" वाले बाबा के पास ले जाना ही उन्हे सुगमसा लगता है.
To be continued. 
धन्यवाद.---🙏🙏🙏🙏🙏
      श्री रामनारायणसिंह खनवे 
            परसापूर. (महाराष्ट्र).
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)

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