मेरी यादें (Meri Yaden) भाग 60 (साठ) :- नोकरी के गाँव के मेरे अनुभव (1970-71 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित घटनाये) (Part Two)
प्यारे पाठको, इसके पहले के भागमे, हमने देखा की, मै और मेरे मित्र सुबह शाम खुली हवा मे घुमने के लिये गाँव के बाहर जाते थे. इस दौरान हमे वहां के स्थानिक लोगो के बारेमे बाते पता चल रही थी. वह इलाखा ट्रायेबल जनजातिय होनेसे हमारे लिये नया था. अब, आगे की घटनाये, हम मेरी यादों के माध्यम से देखेंगे.
हमारे स्कुल मे सत्तर परसेंट विद्यार्थी, बच्चे बाहर गाँव, ढानोसे आनेवाले होते थे. उनमे आदिवासी जनजातिय और पिछडे वर्ग के बहुतांश बच्चे रहते थे. वह सर्व साधारण बच्चों से थोडे पिछे होते थे. तीस परसेंट बच्चे स्थानिक कर्मचारी वर्ग के होते थे. वहलोग बाकी विद्यार्थीयो से निश्चित ही आगे होते थे. हम शिक्षक वर्ग को चिंता इस बातकी रहती थी की, सत्तर को साथ लिये चलना या फिर, तिस की आगे जाने की स्पीड को बढाना. शहरोमे बहुतांश बच्चों मे मेंटल "आई क्यू" मिलता जुलता देखने मे आता है. पचास बच्चों के क्लास मे पाच सात ही पिछडे बच्चे देखने मिलते है. परंतु यहाँ की बात कुछ और ही थी. उपर से "सिल्यॅबस" पूरा करने की जिममेदारी सब्जेक्ट टिचर पर होने से, "पिछडे और प्रगत" बच्चों के लिये कुछ नये फार्मुलो पर चलकर "टार्गेट" तक पहूचना टिचर को आवश्यक हो गया. जिसका प्रयोजन टिचर वर्ग करते थे. आदिवासी जनजातिय विद्यार्थीयो की बोलीभाषा सिधी और एकेरी मे सुनने मिलती थी. "अरे, तुरे" जैसे सिधे शब्दो की भाषा बच्चों के मुँह से हम टिचर्सको सुनने मे कुछ अजिबसी लगती थी. उन बच्चों के पालक भी वैसी ही भाषा मे बोलचाल करने से, उनकी "उस" भाषा का सराव हमे आगे होते गया. बच्चों को मराठी भाषा मे पढाना और बोलने लगाना, सब से कठीण कार्य हम लोगोंको लगता था. इस तरह के माहोल मे, "प्रगत आबादी" जैसे रिझल्ट की अपेक्षा करना गलत ही लगता था. इसी कारण बहुतांश टिचर समाधानी नहीं थे. और साल दो सालमे वहाँ से ट्रान्स्फर कराने के प्रयत्न मे लगे रहते थे.
नोकरी का गाँव ग्रामीण होने से वहाँ की "ग्राम पंचायत" के माध्यम से देखभाल होती थी. परंतु शासन स्तर पर तहसिल, पंचायत समिती, फाॅरेस्ट ऑफिस, लडकियो के लिये "समाज कल्याण" का होस्टेल, पोलिस स्टेशन इत्यादी सरकारी कार्यालय उस गाँव मे स्थापित थे. और उनके माध्यम से परिसर का कारभार चलता था. हमारी स्कूल एक्स गव्ह. हायर सेकंडरी स्कूल थी और मेलघाट तहसिल की सबसे पुरानी अंग्रेजो के जमाने की गव्हर्नमेंट स्कूल होने की वजह से इस स्कूल का "स्टेटस्" ऊँचा था. इसी वजह से पूरे तहसिल के बच्चे पढाई करने हमारे स्कूल मे आते थे. स्कूल का होस्टेल लडको के लिये अलग से चलाया जाता था. जिसकी देखभाल प्रिन्सिपल महोदय के देखरेख मे होती थी. बाहर गाँव के बच्चों की रहने खानेकी व्यवस्था उस होस्टेल मे होती थी. हमारी स्कूल, गाँव से एक कि.मि. दुरी पर थी. स्कूल कॅम्पस मे "क्लास फोर" कर्मचारी के लिये क्वार्टर भी थे. लेकिन टिचर्सके लिये ऐसी कोई व्यवस्था नही होने के कारण, उन्हे हमेशा, अपनी मनपसंद मकानो की खोज रहती थी. मेरा किराये का मकान बरहानपूर को जानेवाली पक्की सडक से सिर्फ दो तिन सौ फूट की दूरी पर था. मकान पोस्ट ऑफिस के नजदिक होने से, आनेवाले नये मेहमान को मेरे घर का पता लगाना बहूत ही सरल होता था. मेरा छोटा भाई "सिजी" पोस्ट ऑफिस के पास के नलसे पिनेका पानी ले आता था. उसी नलपर हमारे मोहल्ले की महिलाये भी पिनेका पानी भरने आती थी. उन महिलाओ के माध्यम से ही हम लोगोंकी सबसे पहचान हो गयी. मोहल्ले के कार्यक्रमो मे हमे निमंत्रण मिलने शुरू हो गये थे.
मै और मेरे मित्र "युके" सुबह पाच बजे घुमने निकल जाते थे. उधर एक देड घंटे मे फिजिकल एक्टिविटीज करने के बाद, घर वापस आते थे. सुबह दुध पिकर मै स्कूल जाता था. किराणा मालमे मै कभी चायपत्ती लाता नहीं था. मेरी पत्नी और छोटा भाई भी मेरे जैसे चाय नही पिते होगे ऐसी मेरी सोच हो गयी थी. परंतु उस समय मै गलत था. वे दोनो मेरे जाने के बाद चाय बनाकर पीते थे. कुछ दिनो बाद उन्होने मुझे चाय बनाकर पिनेकी बात बतायी. तब मुझे मेरी गलती का एहसास हुआ. मै मेरे जैसा ही सबको समझने लगा था. यह मेरी गलती थी. जिसे मैने आगे जिवनमे कभी नहीं होने दिया.
To be continued.......
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे. 🙏🙏🙏
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें