इसके पहले किरानेमे मैने "चायपत्ती" कभी घर लाकर देखी नही थी. मै "मेरे जैसा" ही सबको समझने लगा था. परंतु यह मेरी बडी भूल थी. मेरी पत्नी और छोटा भाई मेरे स्कूल जानेके बाद "चाय" बनाकर पिते थे. इस बात को कुछ दिनो बाद, जब उन दोनो ने मुझे बताया. तब मेरे इस "हटखोरी स्वभाव" का मुझे बडा ही खेद हुआ. मैने उन दोनो के चाय पिने की आदत का कभी विचार ही नहीं किया था. मै मेरे जैसा ही उनको समझते रहा था. यही मेरी बडी भूल थी. तब से फिर मैने, उन दोनो को चाय पिनेसे कभी रोका नही. मै मेरा दुध पिते रहता और वे दोनो उनकी चाय पिते रहते थे.
मै शुरू से ही व्यावसायिक स्वभाव का होनेसे मेरा ध्यान, इस नोकरी के गाँव मे, "अनाज का व्यवसाय" छोटे भाई "सिजी" के माध्यम से करवाने के तरफ लग रहा था. सो मै मेरे एक " टिचर मित्र " को साथ लेकर आसपास के गाँव ढानो मे अनाज उत्पादक किसानो से मिलने लगा. गेहू, चावल अनाज की किंमतो के बारेमे मालुमात करने लगा. किसान लोग बाजार मे, अनाज जिस किंमत पर बेचते थे, उसी किंमत के हिसाब से मैने अनाज की खरेदी करने का ठान लिया. सिर्फ खरेदी किया हुआ अनाज किसानो ने उनके बैलगाडी से मेरे घर पहूँचा देनेका करार, मै उनसे करवाता था और अनाज खरेदी के पैसे घर पहूँचकर ही उन्हे देता था. इस तरह हमारी अनाज की खरेदी होती थी.
अब स्थानिक बाजार मे खरेदी किये हुये अनाज को बेचकर पैसो की वसूली करने की बात बाकी थी. मेरा छोटा भाई "सिजी" मेरे पास था. "सीजी" के माध्यम से इस व्यवसाय को करवाने से, उसे भावी जिवन के लिये व्यावसायिक नाॅलेज मिले इसी उद्देश से मै उसके हातो, यह व्यवसाय करवाना चाहता था. उस व्यवसाय मे प्राॅफिट कमानेका उद्देश मेरा कभी नहीं था. इस कारण अनाज की खरेदी किंमत मे सिर्फ पाच परसेंट का मुनाफा जोडकर हम लोग अनाज बेचते थे. हमारे दुकान का अनाज बाकी दुकानो से ग्राहक को सस्ते मे मिलने से दो बजने तक ही, हमारे पास का सब अनाज बिक जाता था. ढाई तिन बजे हम दोनो भाई वापिस घर पहूचते थे. घर पहूँचने पर हम लोग अनाज बिक्री का हिसाब करते थे. मुनाफे मेसे क्विंटल पर दो किलो अनाज की "घट" निकालने पर एक बोरे की किंमत एक सौ तिन रू. हमारे पास आना चाहिये थी. परंतु ऐसा कभी होता नहीं था. एक सौ तिन रू. की जगह पर सिर्फ छियानब्बे रू. हमारे पास जमा होते थे. ठीक है, कोई बात नही. मै होनेवाले नुकसान को सहने की हिंमत रखने वाला इंसान था. पाच परसेंट से ज्यादा मुनाफा मै ग्राहक से लेना नही चाहता था. ग्राहक के नुकसान के पक्ष मे मै कभी नही था और रहूँगा भी नही. इस व्यवहार मे मेरे, सौ के छियानब्बे रूपये हुये, इसका मुझे कोई गम नहीं था. मैने फिर से दुसरे हफ्ते किसानो से अनाज की खरेदी कर लियी और बाजार के दिन, फिर हमने अनाज बिक्री की दुकान लगवाकर अनाज बेचने का काम किया. इस बार भी घर पर आकर, हमने अनाज बिक्री का हिसाब किया. हमे "सौ के छियानब्बे" रूपये ही मिले थे. मै खुद इस व्यवसाय के तरफ बारिकी से नजर रखे हुआ था. आगे और भी चार पाच हफ्ते अनाज बिक्री का अनुभव लेने पर, हम इस निर्णय पर पहूँचे की, इस व्यवसाय को अब आगे चलाते रहे तो, "सौ के साठ" करने के लाइन मे आ जायेंगे. और फिर उसके बाद, मैने कभी अनाज खरेदी करने का साहस नहीं किया. लेकिन इस व्यवसाय ने हम लोगोंको "सौ के साठ" कैसे बनते है, इस बातका ज्ञान जरूर करा दिया. अगले जिवनमे इस प्रकार के व्यवसाय मैने फिर कभी नही किये. जब भी कभी मुझे इस प्रसंग की याद आती है, उसके साथ ही "आ बैल मुझे मार" की कहावत भी याद आने लगती है.
To be continued.......🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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