मेरी यादें ( Meri Yaden) : भाग 67 (सदुसठ) :- मेरी नोकरी का दुसरा साल ( 1971-72 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित घटनाये )
( Part One).
प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मुझे नागपुर मे "कन्या रत्न" की प्राप्ती हुयी. मेरे घर "कन्या" का जन्म होने से मै निराशाजनक विचारो मे घिर गया. आखिर मैने आगे का सब कुछ, इश्वरी इच्छा के आधिन छोडने का संकल्प किया. आगे की घटनाओ के बारेमे मेरी यादो के माध्यम से अब हम देखेंगे.
मेरे घर "कन्या" का जन्म होने के उपरान्त धिरे धिरे, मेरी सोच बदलने लगी. "मै" पुरूषी "वर्चस्व वाद" को समर्थन देनेवाला, अब उसमे मुझे दोष दिखने शुरू हो गये थे. इसके पहले मै मेरा पुरूषी "अहम्" कभी छोडने को तैयार नहीं था. लेकीन अब, मेरे स्वभाव के साथ जुडे हुये दोषो की तरफ, मेरी नजर जाने लगी. हजारो सालोसे स्त्रियोको "बराबरी के दर्जे का मान" देना भी नकारा गया. इसी विचारधारा से पुरूषी अहंकार ने स्त्रियोपर अपना वर्चस्व कायम रखा. लडकी के माँ बाप का दुःख इसी विचारधारा की आड छुपकर बैठा है और अपने आँखोसे आँसू बहाकर पुण्य कमानेकी बात करता है. आगे की मेरी यादों मे, घटनाओ ने क्या और कैसा मोड लिया, इस बारेमे, हम समय समय पर आपके सामने जरूर प्रस्तुत करते रहेंगे.
अब मेरी स्कूल का दुसरा साल शुरू हो गया. बच्चे पास होकर अगली कक्षा मे "प्रमोट" हो गये थे. उसी तरह हमे भी अगले क्लास का "क्लास टिचर" बना दिया गया. बच्चे वही थे. कक्षा बदल गयी थी. सिलॅबस अगली कक्षा का पढाना था. हम सब टिचर अपनी अपनी जिम्मेदारी निभाने लगे थे. एक महिना बाद मैने मेरी पत्नी को मायके से "नोकरी के गाँव" ले आया. एक देड महिने की बच्ची को साथ लिये रखना, उस समय खतरे से खाली नहीं था. साथ मे छोटा भाई "सीजी" दसवी कक्षामे जाने लगा था. देड महिने की बच्ची की देखभाल हमारे मकान के पास रहने वाली महिला "पडोसी धर्म" के नाम आकर कर जाती थी. मेरे हिसाब से सब कामकाज अच्छे से चल रहा था. लेकिन नयी "डिलीव्हरी" होने वाली महिला को अनुभवी बुजुर्गो की "देखरेख और संरक्षण" नहीं मिलने से "हवा पानी" की बाधा हुये बगैर नही रही. मेरी पत्नी को "बुखार" आने लगा. मैने उस समय के टाॅप की प्रॅक्टीस वाले डाॅ. "डी" साहब से संपर्क कर औषधोपचार शुरू कर दिया. लेकीन बुखार उतरनेका नाम ही नहीं ले रहा था. बुखारने "टायफाईड" का रूप ले लिया. पेशंट को मै हाॅस्पिटलमे, नही ले जा सकता था. इस कारण दिनमे मुझे ही पत्नी को चार बार बुखार चेक करके, दवापानी भी देनी पडती थी. मेरी "तारो पर चलने की कसरत" हो रही थी. फिर भी मेरा काॅन्फिडेन्स कायम था. डाॅ. साहब ने मेरी पत्नी को "खाना पिना" मना कर दिया था. मै और छोटा भाई भोजनालय से दोनो समय टिफीन लाकर खाते थे. पत्नी का बुखार "चालीस दिन" तक नही उतरा. उसका वजन काफी कम हो गया था. "हवा के झोके" से पत्नी के गिरनेका डर खडा हो गया था. उस समय घरोमे लॅट्रीन ना होने के कारण बडी कठीनाई होती थी. लेकीन मै "हिंमत" नहीं हार सकता था. पत्नी की "तबियत" के लिये मै कुछ भी करने को तैयार था. आखिर चालिस दिनो के बाद बुखार उतर गया. तब कहीं मेरी "जान मे जान" आयी. तब तक दिपावली की छुट्टीयाँ भी लगने वाली थी. छुट्टीया लगते ही, पत्नी और छोटे भाई "सीजी" को लेकर मै जल्दीसे गाँव आ गया. गाँव मे पिताजी पहले से ही बिमार थे. फिर भी गाँव की "हवा और पानी" ने मेरी पत्नी के लिये "अमृत" का काम कर दिखाया. मैने इश्वर को मनःपूर्वक, लाख लाख धन्यवाद दिये और अगले कार्यो की तैयारी मे लग गया.
To be continued.
धन्यवाद. 🙏🙏🙏🙏🙏
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र).
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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