मेरी यादें (Meri Yaden) भाग 66 (छहसठ) ;- जब मुझे पहली बार कन्या रत्न की प्राप्ती हुयी थी ..... (1971 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित घटी घटनाये) (Part One) प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, स्कूल के रिझल्ट डिक्लेअर हो गये थे. धुपकाले की छुट्टी के सुरूवाती दौरमे ही इलेक्शन प्रोग्राम की समाप्ती हो गयी थी. आगे की घटनाये मेरी यादों के माध्यम से अब हम देखेंगे.
मेरी पत्नी को मेरे ससुरजी मार्च आखिर मे ही मायके मे नागपूर साथ ले गये थे. मेरा छोटा भाई "सीजी" भी परिक्षा देकर गाँव चला गया था. अब सिर्फ मै ही अकेला रूम पर रह रहा था. बच्चों के रिझल्ट के बाद इलेक्शन प्रोग्राम समाप्त होते ही दुसरे दिन मै पत्नी के गाँव नागपूर चला गया. सुबह गाँव से निकला हुआ मै, शाम पाँच बजे नागपूर पहूँचा. बडी मुश्किल से पुछताछ करने पर मुझे ससुरजी के मकान का पता लगा. जब मै ससुरजी मे घरके सामने पहूँचा, उसी वक्त लाइट चली गयी. सब तरफ अंधेरा ही अंधेरा लग रहा था. मुझे अंधेरे की आदत बिलकूल नहीं थी. किधर जाना इसका भी अनुमान मुझसे लगाये नहीं जा रहा था. मेरी समझमे यह नहीं आ रहा था की, कौनसे भाग मे प्रवेश करू ? उस मकान मे अंदर दो पार्ट थे. मेरे आवाज देने पर साईड मे रहने वाले रिस्तेदारो ने मुझे उनके घर बुलाया. मेरे लिये सब नया माहोल था. मै भी "ससुरजी" का घर समझकर उनकी तरफ के पार्टमे जा बैठा. मै बार बार घरके अंदर देखकर इस बातका अंदाजा लगा रहा था की, मेरी पत्नी वहां क्यों नही दिख रही ? कही मै दुसरो के मकान मे तो नहीं आ बैठा ? बात वही हुयी थी. जब मेरी पत्नीने सामने के दरवाजे से आकर मुझे घर चलनेको कहा, तब बात मेरी समझमे आयी. तब तक लाईट भी आ गयी थी. मुझे मनही मन खुदपर ही हँसी आ रही थी. मै कुछ कुछ मुर्खता भी कर रहा हूँ ऐसा ही मुझे लग रहा था.
पिछले दो महिनो के अंतराल के बाद पत्नी की मुलाकात होने पर मुझे उस अंजान जगह मे अपनेपन की कुछ अनुभूती मिली थी. मेरी पत्नी की डिलीव्हरी का समय भी आ गया था. एक दिन के बाद, उसे कार्पोरेशन के हाॅस्पिटलमे भरती किया गया. मै उस समय हाॅस्पिटल मे उपस्थित था और भगवान से यह प्रार्थना कर रहा था की, मेरी पत्नी को "पुत्र रत्न" हो. इस प्रक्रीया मे लगभग एक घंटा लगा होगा. अंदर से नर्स ने जल्दी मे आकर, "लडकी"प्राप्त होनेका समाचार हम लोगोंको दिया. इस समाचार को सुनकर मुझे बहूतही निराशा हुयी. मै पुत्र इसलिये चाह रहा था, क्योंकी समाजमे हर जगह महिलाओ को "दुय्यमता" देने की जो परंपरा चली आ रही, उन श्रृंखलाको हम तोड नही सकते. हर लडकी के माता पिता इस सामाजिक दुर्व्यवहार से त्रस्त होते है लेकिन कुछ भी कर नही सकते. नसीब का भोग समझकर उस कन्या को "कन्यादान" के रस्म के साथ जोडकर पुण्य का काल्पनिक धनी बना दिया जाता है. बुद्धी को ना पटने वाली इन बातोने मुझे भी चिंतन करने के लिये बाध्य किया. आखिर इश्वर से प्रार्थना करने पर मै विवश हुआ. मैने इश्वर से प्रार्थना मे भी कहा की, "मुझे लडकी ना होने दे." परंतु वही हुआ जिसका मुझे डर था. मेरे पत्नी को "लडकी" ही हुयी. उसी क्षण मेरे दिमाग मे विचार आया की, "बेटा, अब जिवन मे लाचार बनने की आदत बना ले". मैने इसके लिये इश्वर से अनुमती लेनी चाही थी. इश्वर ने मुझे "कर्म कर, फल की आशा मत कर" और आगेकी बाते समय पर छोड देने को कहा था. मैने सिर हिलाकर इश्वर को मनःपूर्वक अभिवादन किया.
To be continued. -----------------🙏🙏🙏🙏🙏
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर. (महाराष्ट्र).
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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