मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 96 (Ninety Six) :- आरोग्य मंदिर गोरखपूर मे मुझे क्या देखने को मिला ? (1981 के दरम्यान की घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें ) (Part Two) प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, आरोग्य मंदिर गोरखपूर मे मेरी दिनचर्या शुरू हो गयी है. बिचमे "बारा से तिन" के दरम्यान ही थोडा विश्राम मिल जाता था. हमारा इलाज, हमारे ही हातो से किया जा रहा था. साथमे उससे मिले अनुभवोसे ज्ञान की प्राप्ती भी हो रही थी. वहाँ आये हुये, हम सब सदस्य समाधानी थे. आगे वहाँ पर मुझे क्या क्या देखने मिला इसके बारेमे की जानकारी अब हम देखेंगे. जनवरी का महिना होने से उस समय, गोरखपूर मे "हद" से जादा थंड पड रही थी. मैने गाँव से नया ब्लांकेट साथ मे ले आया था. लेकिन उसे ओढने के बादभी मुझे रातभर थंड ही लगती थी. आखिर मुझे वहाँ के लोकल मार्केट से रजाई खरिदकर लानी ही पडी, उसके बादसे ही मेरी निंद, अच्छे से होने लगी. वैसेभी दिनके दो बज ने तक मेरे शरिर से थंड जाती ही नही थी. उतराखंड की ओरसे आनेवाले थंडी "हवा के झोके" मुझे काटों जैसे झोंबने लगते थे. मुझे इतनी जादा थंड सहने की आदत नहीं थी. मै परेशान होकर धुप मे जाकर बैठता था. सुबह के नित्यकर्मो से निवृत्त होकर, साडे आठ के दरम्यान मुझे थंडे पानी से बनायी गयी मिट्टीकी पट्टी पेट पर रखनी पडती थी. जिसे चालीस मिनिट तक पेटपर रखना होता था. जिससे पेटमे जमा हुयी गर्मी छटने मे मदत मिलती थी. उसके बाद शरीर मे जमा हुये मल को, बाहर निकल जाने के लिये "थंडे पानी का एनिमा" सबको दिया जाता था. इन दोनो प्रक्रियाओ के बाद मुझे बडा ही हलका महसूस होता था. बडे ही आनंद की अनुभूती मिलती थी. इस तरह का अनुभव इसके पहले मुझे कभी मिला नहीं था. और फिर इसके बाद नहाने जाना होता था. घर पर हम लोग गरमी के दिनो को छोडकर बाकी मौसम मे गरम पानी से ही नहाते थे. लेकिन यहां आरोग्य मंदिर मे थंडे पानी से ही नहाने पर कटाक्ष रहता था. मुझे तो "थंडा पानी" जैसे "काटने" दौडता था. मै थोडा, बाकी लोगोके पिछे रहकर गरम पानी के "टबमे" जा बैठता था. जिसमे मुझे, बडा ही आराम दायक लगता था. ऐसा करने के लिये, मै मजबूर था. क्योंकी पहले ही दिन, जब मैने थंडे पानीसे नहाया, तो मेरे दात खट्खटाने लगे थे. उसके बादसे मै थंडे पानीसे थोडा दूर ही रहने लगा.
"आरोग्य मंदीर" मे खानेकी चिजे खरिदने के लिये पैसोसे कुपन लेने होते थे. दोपहर मे मुझे "गांजर" का एक पाव रस लेने को कहा गया था. मुझे हर दिन गांजर और भोजन के लिये कुपन खरिदने पडते थे. बाकी लोग भी "दुध दही" के लिये कुपन लेते थे. ट्रिटमेंट करने के लिये कोई चार्ज नहीं लिया जाता था. आरोग्य मंदिर का वातावरण, सचमे मंदीर जैसा ही बनाया गया था. कहीं भी अस्वच्छता नामकी कोई चिज मुझे दिखी नही. हर कोई "सौजन्यता" से पेश आता था. मा. संचालक महोदय श्रीमान "व्ही जी साहब" तो बहूत ही आत्मियता से हम लोगोसे बात करते थे. रोज सुबह वे, हम लोगों को लेकर बाहर घुमने निकल जाते थे. घुमते वक्त भी वे हमारी शंकाओ का समाधान करने मे आनंद मानते थे. उन्होने "नेचरोपॅथी" मे बताये गये उपचारो को खुद पर "आजमाये" थे. रिझल्ट देखने के बाद ही उन्हे आरोग्य मंदिर गोरखपूर मे मान्यता दिलायी थी. मिट्टी पानी धुप हवा के व्यतिरिक्त उपवास, फलाहार, दुग्ध कल्प भोजनमे फेरफार करने मात्रसे रोगोसे छुटकारा मिलाने पर आरोग्य मंदीर मे जोर दिया जाता था. तरह तरह के रंगोका मानवी शरीर पर होनेवाले परिणामो का अभ्यास भी विद्यार्थ्यीयो से करा लिया जाता था. जिसका उपयोग वे आगे अलग अलग रोगोपर कर सके.
आरोग्य मंदीर गोरखपूर मे "प्राकृतिक चिकित्सा" पध्दती पर एक साल मे किये जाने वाले कोर्सेस का मार्गदर्शन भी दिया जाता था. आखिर मे, आरोग्य मंदिर मे दो माह के प्रॅक्टिकल प्रशिक्षण के बाद N. D. का प्रमाण पत्र देने के बारेमे भी हमे जानकारी दियी गयी थी. लेकिन हम, हमारा आरोग्य भी अच्छी तरह से संभाल सके, यह क्या हमारे लिये छोटी बात थी ? खुद का आरोग्य संभालने मे हम "सेल्फ" बनकर अपनी फॅमिली को भी संभाल सके, तो हमारा जिवन सफल होनेमे बहूत देर नहीं लगेगी. ( क्रमशः )
To be continued ..........
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)
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