मेरी यादें (Meri Yaden) भाग : 84 (Eighty Four) :- सोशियल वर्क मे, अगले लक्ष पर मै कैसे पहूँचा? (1976/77 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part One) प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हम ने देखा की, मै गाँव मे "कृषक चर्चा मंडल" का चेअरमन बन गया हूँ. "चर्चा मंडल" का कार्यालय "ग्राम पंचायत भवन" मे ही रखा गया था. इसी निमित्त्य से शासकीय अफसरो से मै मिलना जुलना भी रहा था. अब मै गाँव के लोगो की नजरो मे "महत्त्वपूर्ण" व्यक्ती बन गया था. और इसके बाद की क्या घटनाये घटी, उन सब के बारेमे मेरी यादो के माध्यम से हम आगे मे जानेंगे. उन दिनो खेती के अतिरिक्त मेरे पास दुसरे काम न होने के कारण, गाँव के कुछ पुराने "पाॅलिटीकल बुजुर्गो" से मैने मिलना जुलना शुरू कर दिया था. उनके पिछले अनुभवो को मै सुनता था. जिससे आगे के निर्णय लेने के लिये मुझे सुगम राह मिलती रहे. हमारे गाँव मे खेतीहर किसानो के लिये शासन के सहयोग से पिछले कई सालो से "सहकारी सोसायटी" चलते आयी थी. गाँव का हर किसान उस सहकारी संस्था का सदस्य बना हुआ था. क्योंकी वहाँसे ही किसानो को खाद बिज उसी तरह नकद राशी भी, अल्प ब्याज दर पर मिलती थी. उस जमाने मे किसानो को खेती के लिये कर्जा मिलने का यही एक सिधा सरल मार्ग गाँवो मे था. दुसरी सरकारी बँको मे किसानो के लिये उतनी सरल सुविधाये नहीं बनी थी. शहरो मे साहूकारी का व्यवसाय "सोना गिरवी" रखनेका चलता था. लेकिन जादातर किसानो की हालात उतनी अच्छी नही थी, जो सोना खरेदी करे और घरमे रखे.
बहुतांश खेती निसर्ग के भरोसे चलते आयी थी. "आयी तो लाख की, नहीं तो फाक की" इस तरह के जुगार के साथ जिवन चलाना किसानो की "कर्म कहानी" बन गयी थी. खेती गिरवी रखकर या साहूकार के नाम खेती का "खरेदी खत" कर देने पर कर्जा उपलब्ध होता था. उसके ब्याज का हिसाब पाँच से दस परसेंट महिना, ठहराकर व्यवहार चलते थे. जिसकी ॠण वापसी करना किसान के लिये अशक्य प्राय होती थी. आखिर मे किसान की खेतीपर साहूकार कब्जा कर लेते थे. इस तरह कई किसान बिना खेती के भुमिहिन मजदूर बन रहे थे. किसानो की वास्तविकता को देख सुनकर मेरा हृदय द्रवित हुये बिना नहीं रहता. जैसे जैसे "बुजुर्गो" से उनके अनुभव मै सुनते जा रहा था, वैसे वैसे मुझे पाॅलिटीकल दृष्टिकोन तो मिल ही रहा था, साथमे किसानो की आर्थिक स्थिती का रियल ज्ञान भी मिल रहा था. उनके लिये मै क्या कर सकता हूँ? यह सवाल मुझे बार बार पड रहा था. धिरे धिरे, किसानो के प्रश्नो को लेकर मैने हर जगह आवाज उठानी शुरू कर दियी थी. मै उनका पक्षधर बन गया था. उसका फायदा मुझे यह हुआ की, मै शुरू मे ही सहकारी सोसायटी का "उपाध्यक्ष" चुन लिया गया. और फिर बाद मे मेरे कार्य और इच्छा शक्ती को देखते दुसरे ही साल चेअरमन भी बन गया. यह समय मेरे जिवन का "सुवर्णमयी" समय था. मै जो भी मनमे सोचता वही सब होता था. मेरे प्रिय मित्र "युके" की अदृष्य "पाॅवर" हर क्षण मेरे साथ होने के कारण, मेरी हर बातको वजन आने लगा था. सहकारी सोसायटी का चेअरमन होने के नाते, मुझे ग्राम पंचायत मे पदसिद्द "संचालक" का पद भी मिला था. इस तरह गाँव की दोनो संस्थाओ पर मै पहूँच गया था.
"मेरी पांचों ऊंगलियाॅ घी मे और सर कढाई मे" जैसी स्थिती चल रही थी. लेकिन यह पुरा सच नहीं था. लोगोको और मुझे उपरसे जैसा दिख रहा था, वैसा अंदर से नहीं था. जिनकी "मोनोपली" को मै समाप्त करने जा रहा था, वे सब लोग मनमे अंदर ही अंदर घुटनसी महसूस कर रहे थे. वे मेरी कमजोरीयों को ढूंडनेमे लगे थे. इन सब बातो की मुझे पहले से ही कल्पना थी. मेरे बारेमे, किसानो मे गलत फहमियाँ फैलाना और मेरी बदनामी करना उन लोगोंका कार्य जोर शोर से शुरू था. जिसकी खबर बात मेरे हित चिंतको से मेरे पास पहूँच जाती थी. उन खबरो मे से "झुट सच" को ढुंडकर निकालना मेरा काम था. इसी बिच, बडे भाई जैसे पुराने, पाॅलिटीकल लिडर रहे, एक बुजुर्ग मित्र मुझसे जुड गये थे. उन्हे मैने पाॅलिटीकल गुरू मान लिया था. उन्हे हम सुविधा के लिये "एसजे" के नाम से पहचानेंगे.
To be continued......
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल, हम फिर मिलेंगे.)
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