मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 94 (Ninety Four) :- मै आरोग्य मंदिर गोरखपूर क्यों और कैसे पहूँचा ? (1080-81 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part Three) प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, मै इलाहाबाद रेल्वे स्टेशन पर पहूँचा. गोरखपूर की गाडी आनेमे अभी सात आठ घंटे की देर थी. इस लिये मै "प्रतिक्षालय" के एक कोने मे आराम करने लगा. तभी चार पुलीस वालो ने मुझे जगाकर पुछताछ शुरू कियी और वे मुझे "चोर उचक्का" समझकर "लाॅकअप" मे बंद करने की धमकी भी देने लगे. उनकी धमकी को ना घबराकर मैने जब उनके ही नाम और नंबर नोट करने चाहे, तब कहीं उनसे मेरा पिंड छुटा. और अब आगे की घटनाये, मेरी यादो के माध्यम से हम आगे को देखेंगे. उन चारो पुलीस वालो से अगर मै घबरा जाता तो, वे लोग मुझे "हवालात" मे बंद करके ही दम लेते थे. उनसे मैने खुद को बचा लिया था. मेरे "अंदर की शक्ती" इस समय काम मे आयी थी. मैने मेरा बचाव अच्छे से कर लिया. वहाँ उपस्थित पॅसेंजरोने भी मेरे हिंमत की दाद दियी. रात ढाई बजे गोरखपूर की गाडी होने से, दो बजते ही "रेडी" होकर गाडी आनेवाले प्लॅटफॉर्म पर मै जा पहूँचा. धिरे धिरे उधर जानेवाले और भी पॅसेंजर आने लगे थे. कुछ वही पर आराम फरमाते हुये गाडी की राह देख रहे थे. चायवाले "चाय गरम" बेचकर अपना खिसा "गरम" करने मे लगे थे. मै भी उन्ही लोगोंका हिस्सा बन गया था. मुझे तो सिर्फ "गोरखपूर" पहूँचने की तंद्री लगी थी. मै ढाई बजने की राह ही देख रहा था. गाडी आने की अनाउन्समेंट होते ही, सब पॅसेंजरोमे हलचल सी मच गयी. गोरखपूर जाने वाली गाडीने प्लेटफॉर्म पर प्रवेश किया था. जानेवाले मुसाफिरो की भिड देखकर मैने पिछे ही रहना चाहा. गाडी छुटने की सिटी बज गयी थी, फिरभी चढने वालो की भिड कम होने का नाम ही नही ले रही थी. परंतु जब गाडी छुटने ही लगी तो, मुझे भिडमेसे रास्ता बनाते हुये, अपनी सिट पकडनी ही पडी. रेल के प्रवास मे सिधा सादा आदमी "मुर्ख" ठहराया जाता है. उसे पिछेमे धकेल दिया जाता है. पॅसेंजरो को गाडी छुटने के पहले डिब्बेमे पहूँचने की घाई होने से, उस समय, बुजुर्गो को भी जोर चढा हुआ देखने मिलता है. और "पढे लिखो" की तो बात ही मत पुछो, "मानवियता" नाम की कोई चिज, उनमे बहूत कम ही देखने मिलेगी. फिर गाँव वाले बेचारे, अपने अपने के हिसाब से एडजेस्ट करते हुये अपनी "जर्नी" पुरी कर लेते है. बहूत बार तो, "जिसकी लाठी उसकी ही भैंस" देखने मिलती है. अकेले इंसान की तो कोई गिनती ही नही होती. बस्, अपनी जर्नी आनंद से हो जाये, यही हमारा बडा नसिब.
इलाहाबाद से गोरखपूर सौ सव्वासौ कि. मि. पर होनेसे सुबह सुबह, मै आरोग्य मंदिर गोरखपूर पहूँचा. मेरे लिये सब माहोल नया नया था. पुछते पुछाते मै, आरोग्य मंदिर के एरिया मे पहूँच ही गया. मुझे सबसे पहले "आरोग्य मंदिर गोरखपूर" के नाम का बडा लंबासा बोर्ड दिखा. जिसपर लिखा था, "सौ रोगोकी एक दवा, मिट्टी धुप पानी हवा". इतने दिनोसे, जिसे मै खोज रहा था, उसके मुझे अब वास्तविकता मे दर्शन हो रहे थे. मेरे सपने सच हो रहे थे. कल्पना मे देखी एक अलग दुनिया मे, उस समय मैने प्रवेश कर लिया. शुरू मे मुझे आस्थापना विभाग मे पहूँचा दिया. जहाँ मेरा रजिस्ट्रेशन हुआ. कुछ डिपाॅझिट देने के बाद मुझे रहने के लिये रूम मिली. जहाँ, पहलेसे ही एक सहयोगी सदस्य मुकामी था. उससे मेरा परिचय होनेपर, हम दोनो मित्र बन गये. वह ओरिसा के कोई गाँव का रहनेवाला था. उसका नाम "नायडू" था. मुझसे वह हिंदी मे बात करते रहता. लेकिन उसकी बोलीभाषा ओरिसी थी. जो मेरी समझमे कुछ भी नही आती थी. स्वभाव से "नायडू" बहूत ही सिधा व्यक्ती था. उसके गाँव परिवार की बाते, मुझे बडी ही रोचक और नयी लगती थी. फूरसत मे हम दोनो, एक दुसरे की बातोमे उलझ जाते थे. नायडू के शिवाय, मेरे पास पहचान वाला अभी तो कोई भी नहीं था.
(क्रमशः)
To be continued........
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)
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