मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 95 (Ninety Five) :- आरोग्य मंदिर गोरखपूर मे मुझे क्या देखने को मिला ? (1981 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) ( Part One ) प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मै इलाहाबाद से सुबह मे ही आरोग्य मंदिर गोरखपूर पहूँच गया. वहाँ मुझे रूम मिल गयी. जिसमे नायडू नामके सहयोगी के साथ मुझे रहना था. हम दोनोमे अच्छी दोस्ती हो गयी थी और बाकी शेष बातो को हम आगे देखेंगे. जिन बातोके मैने कुछ दिन पहले तक सपने देखे थे, उन सब बातो को मै "आरोग्य मंदिर गोरखपूर" मे प्रत्यक्ष देख सुन रहा था. मनुष्य जिवनमे ऐसा बहूत ही कम बार होता है की, वह जिस बातकी कल्पना करे और प्रत्यक्ष मे उसे वह बात मिल जाये. परंतु इस बातके लिये मै भाग्यशाली था की, मुझे वह सब ज्ञान वर्धक बाते, अनुभव के साथ देखने सुनने को मिली. आरोग्य मंदिर गोरखपूर के मुख्य संयोजक श्रीमान व्ही.जी. मोदी साहब थे. जिन्होने अपने खुद पर आजमाये ज्ञानयुक्त अनुभवोसे नये ज्ञान की प्राप्ती कियी थी. साथमे "नॅचरोपॅथी" मे बाहरके देशोमे हुये संशोधन की स्टडी करने के बाद अपने देश भारत मे प्रायव्हेट सेक्टर पर "आरोग्य मंदिर" नामकी संस्था यु पी मे गोरखपूर को स्थापित कियी. हमारे तरफ जैसे शासन के मेडिकल अस्पताल होते है, जहाँ नये डाॅ. विद्यार्थीयो को प्रॅक्टिकल नाॅलेज दिया जाता है. वैसा कुछ यहाँ नहीं था. यहाँ आनेवाले विद्यार्थी को अपनी खुद की बिमारी का इलाज मिट्टी पानी धुप हवा के माध्यम से कैसे किया जाता, यह पढाया जाता था. हर विद्यार्थी के लिये वहाँ के असि. डाॅ. साहब एक दिनचर्या लिख देते थे. उसी को सब लोग फालो करते थे. सुबह पाच बजे घुमने जाने से दिनचर्या शुरू होकर शामके भोजन तक हर आदमी बिझी रहता था. दोपहर बारा से तीन के समय मे थोडा विश्राम हो जाता था. बाकी समय अपने अपने इलाज करो और उसमे से ही नये ज्ञान की प्राप्ती करते रहो. दोपहर चार से पाच तक संचालक महोदय नेचर क्योर पर की नयी नयी ज्ञानयुक्त बाते बताते थे. हम विद्यार्थीयो का शंका समाधान भी किया जाता था. आरोग्य मंदिर की एक बडी लायब्ररी थी. जहाँ प्राकृतिक चिकित्सा पर लिखी भारत के सब प्रकाशनो की किताबे हम लोगोंको पढने मिल रही थी. नया ज्ञान मिलाने मे मै पहले से ही ऊत्साहीत रहा हूँ. मुझे तो समझो, ज्ञानका खजिना ही मिल गया था. लायब्ररी की कितोबो से अच्छी किताबे, मै हर दिन पढने लाता था. मुझे दिनमे तिन बार गार्डनमे पंधरा पंधरा मिनिट के राउंड लगाने होते थे. सुबह नऊ बजे, दोपहर तिन बजे और शाम छह बजे मै गार्डनमे राउंड लगाता था. मजा आता था. भुख अच्छी लगने लगी थी. लेकिन "पेट भर" के खाने वाले हम लोगोंके लिये, भोजन मे गेहू की पतली दो रोटी, एक वाटी दलिया और एक वाटी पतली सब्जी इतना ही कम्पलसरी था. वह भी आधे घंटेमे चबा चबाकर खाना होता था. आरोग्य मंदिर आनेवाला हर सदस्य खानेकी जगह पर समाधानी नही होता था. रोटी की भुक रोटीसे ही जाती है. कुछ लोगोने दोपहर को, संचालक महोदय के चर्चा सत्र मे भी यह बात चलायी. इस बातका हमारा समाधान भी उन्होने अच्छी तरह से किया. हर दिन के "भरपेट खाते" रहनेसे हमारी पाचन क्रिया थक जाती है. उसे कभी आराम नही मिलनेसे दिनो दिन पेटकी पाचन करने की क्षमता घटने लगती है. खाये हुये भोजन से पोषक घटक लेना कम होने लगता है, जिससे हमारे जिवन शक्ति मे घट आने लगती है. मनुष्य कमजोर और बिमार होने लगता है. पेटकी उस क्रिया को आराम मिलने के उद्देश से, कमसे कम भोजन करना और वह भी "आधे घंटे", बार बार चबाकर खाने की सलाह सबके लिये दियी गयी थी. यह एक प्रकार के "उपवास" का ही दुसरा रूप था. जिससे आनेवाले हर सदस्य के स्वास्थ्य मे दिनो दिन सुधार होते नजर आ रहा था. बात सबको पटने वाली थी. यह हम सब सदस्यो के लिये नया ज्ञान था. जिसका उपयोग हमे जिवनमे हर दिन होनेवाला था. इसी तरह और भी नये नये ज्ञान की प्राप्ती हमे होते रही. जिसकी जानकारी हम, मेरी यादोंके माध्यम से अगले संस्करणो मे जानेंगे. ( क्रमशः)
To be continued. .....
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)
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