मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 91 (Ninety One) :- मोटार सायकिल से "भादुगाँव एम पी" रातमे, मै कैसे पहूँचा ?...... (1980 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part Two) प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, मै और मेरा नागपूर का रिस्तेदार, दोनो ही मोटार सायकिल से रात के वक्त भादुगाँव एम पी जाने निकले थे. रास्ता सुनसान, उबळ खाबळ और पथरिला था. जंगल भी घना था. "जंगली जानवरो से सावधान" रहने के बोर्डभी हमे दिख रहे थे. ऐसे स्थिती मे मोटार सायकिल से, जंगल से होते हुये आगे आगे, भादुगाँव के रास्ते से, हम दोनो जा रहे थे. अब आगे..... हम दोनो उस रात एक दुसरे के "सखा संरक्षक" सब कुछ बन गये थे. क्योंकी, उस वक्त हम दोनो के शिवाय "तिसरे" की कोई गुंजाईश नहीं थी. रात का अंधेरा और सन्नाटा, हम दोनो को भी "डरा" रहा था. हम भी दोनो "कच्ची गोली" खेले हुये खिलाडी नहीं थे. हमे मालूम था की, अगर हम डर गये तो, सिधे मौत को ही बुलाना होगा. घने जंगल से होते, हमारी गाडी, पहाडी की गोल घेरे वाली चढाई चढने मे लगी थी. "जंगली जानवरो" से सावधानी के बोर्ड हमे "जल्दी जल्दी" दिखने लगे थे. हम दोनो समझ गये की, यह एरिया खतरनाक होने की सूचना मिल रही है. इसी कारण मै गाडीका एक्सीलेटर बढाते ही जा रहा था. लेकिन गाडी उस हिसाब से नहीं दौड रही थी. गाडी के स्पिड की भी एक लिमिट होती है ना, जिसके बाद वह भी हात उपर कर देती है. बात वही हुयी. चढाई पर गाडी चालीस पचास गज ही चली होगी की, गाडी अपने आप बंद पडकर जगह पर खडी हो गयी थी. गाडी का हेड लाईट भी बुझ गया था. "अंधेरा भूक" हो गया था. हम दोनो गाडीसे उतर गये थे. दोनो एक दुसरे को देख भी नही सकते थे. घरसे निकलते वक्त, साथ मे मै टाॅर्च लेना भुल गया था. मैने गाडी हिलाकर देखी तो, टंकी मे का पेट्रोल बज रहा था. गाडी की किक् भी मारकर देखी, फिरभी गाडी स्टार्ट नहीं हुयी. अब हम दोनो को, चिंता होने लगी थी. क्योंकी रात का "अंधेरा भुक" और जंगली जानवरो वाला घना जंगल. मदद के लिये कोई मिलनेवाला भी नही था. आखिर मेरे साथीदार को ही "युक्ती" सुझी. उसके पास "माचिस थी. माचिस की लकडी से पासका थोडा कचरा जलाते हुये, उसने मुझे गाडी का प्लग साफ करने को कहा. मैने उसका कहा मानकर "पाना पेंचिस" निकालकर गाडीका प्लग खोला और "काॅर्बन" साफ करने लगा. किक् मारकर उसे चेक भी किया. शेर चितो के डर के मारे, "दो मिनिट" के अंदर ही, बंद पडी गाडी को हमने स्टार्ट कर किया. गाडी का हेड लाईट भी लाईट देने लगा. हमने मनही मन इश्वर को तो धन्यवाद दिये ही, गाडी को भी "प्रणाम" किया और फिर आगे भादुगाँव जाने वाले रास्ते से हम चलने लगे. भगवान भी बिकट परिस्थितीया पैदा कराके, हमारी परिक्षा लेते है. उस परिक्षा को हम कैसे पार करते है, यही बात हमारे हातमे है. गाडी बंद पडने पर, घबडाकर अगर हम कुछ न करते तो, हमारा क्या हाल होता, यह कह नही सकते.
आगे आगे, घना जंगल कुछ कम होते हो रहा था. मन मे बैठा डर अब कुछ कम होते जा रहा था. दूरवाले गाँवोके जलते दियो की रोशनी देखकर तो ऐसा लगता, मानो हम इस दुनिया से दूर, कहीं दुसरे ही धरती पर फस गये. बडे मुश्किल से हम अपनी दुनियामे लौट रहे थे. हमारी दुनिया हमे स्वर्ग से सुंदर लग रही थी. मेरे बडे पिताजी को साठ सत्तर साल पहले, इन घने जंगलोसे "छकळे" से आते जाते क्या क्या मुसिबतो का सामना करना पडा होगा इसकी कल्पना भी नही कियी जाती. कल्पना मात्र से भी हमारे रोंगटे खडे हो जाते है. हम पर तो थोडी ही गुजरी थी. बडे पिताजी की क्या हिंमत होगी. वे तो अकेले ही "छकळा" हकालते आते जाते थे. साथमे सिर्फ "घुंघट" वाली मेरी बडी माँ होती थी. उन दोनो की हिंमत का "लोहा" ही मानना पडेगा. हमारे दिनो दिन के "सुरक्षित" वातावरण से, हमारा "स्ट्रगल" खत्म होते जा रहा है. जिससे "काॅन्फिडेन्स" मे भी कमी आती जा रही है. "साहस" की क्षमता गायब होते जा रही है. "पराक्रम" की तो बात ही छोडो. "पराक्रम" नामका शब्द सिर्फ कथा कहानियो और इतिहास के पन्नो मे ही सुनने मिलेगा. हमारे वास्तविक जिवन मे "पराक्रम" का महत्त्व हमे समझ नही सकेगा.
इस तरह बडे हिंमत से रातके एक बजे हम दोनो साथी भादुगाँव पहूँचे. हमारे गाडी का आवाज सुनते ही, घर के चार पाँच लोग, यह देखने बाहर निकले थे की, कौन मेहमान आये है ? जब उन्होने मुझे देखा तो उन्हे बडी ही खुशी हुयी. हम दोनो का उन लोगोंने जोरदार स्वागत किया. कल के कार्यक्रम के लिये "बुंदी" "सेव" निकाले जा रहे थे. वही ताजी बुंदी और सेव हमे भरपेट खाने मिले. जिससे हमारी आत्मा शांत हो गयी थी. हमारी रास्ते मे आयी थकान मिट गयी थी. इसे कहते है, "दाने दाने पर लिखा है, खानेवाले का नाम." उन्हे भी कल्पना नही थी की, हम इतनी रात गये वहाँ आयेंगे. और हमे भी पता नही था की, भादुगाँव पहूँचने पर हम किस स्थिती मे होंगे. उपर वाले तेरा जबाब नहीं. तेरा लाख लाख शुक्रिया. (क्रमशः)
To be continued.
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)
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