"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 88 (Eighty Eight) :- मेरे छोटे भाई "सिजी" की शादी कैसे हुयी ?......(1979-80 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part One)

            मेरी यादें  (Meri Yaden) : भाग 88 (Eighty Eight) :- मेरे छोटे भाई "सिजी" की शादी कैसे हुयी ?......(1979-80 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part One)
         प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, शुरू मे मेरे पास, एक नयी हरक्युलिस सायकिल थी. मेरे खेती मे मिरची और कपास की फसले अच्छे मुनाफे मे होने से, अब मेरी आर्थिक बाजू मजबूत हो गयी थी. इसी कारण मोटार सायकिल लेने का मेरा विचार हुआ.  मैने जिले के कृषी अधिकारी साहब से, पाँच हजार रूपये मे "येझडी" गाडी का सौदा किया और गाँव के ही एक "रिस्तेदार दोस्त" के साथ जिले के शहर मे जाकर गाडी घर ले आया था. और अब इस के बाद की घटनाओ के बारेमे, मेरी यादों के माध्यम से, हम आगे देखेंगे. 
              जिवन के शुरू मे ही "येझडी" मोटार सायकिल खरेदी करके मेरे पारिवारिक जिवन मे, मैने "नये रंग" भरने की कोशिश कियी थी. इसके पहले मैने कभी गाडी को "हात" भी नहीं लगाया था. शुरू मे तो मुझे गाडी चलाना ही सिखना पडा. आठ दस दिनो के प्रॅक्टिस के बाद मुझे रोड पर गाडी लेकर चलाने का काॅन्फिडेन्स आ गया. अब मै खुद के बल पर "टू व्हिलर" गाडी लेकर जाने लगा. मेरे जिगरी दोस्त "युके" और "एसजे" इसमे मेरा साथ देते थे.
             इसी दौरान, मेरे छोटे भाई की शादी जुड गयी. हम उन्हे "सिजी" के नाम से जानेंगे. छोटा भाई "सिजी" डिफेंस के सर्व्हिस मे था. उसके लायक लडकी हम ढुंड रहे थे. लेकिन हम लोगो को, "सिजी" के लायक कोई भी लडकी "पसंद" नही पडी थी. आखिर मे ढुंडते ढुंडते गाँव के ही "दुर के रिस्तेदार" की बेटी से "सिजी" का संबंध हम लोगोंने फिक्स किया. अब शादी की तैयारी हम लोगोंको करनी थी. "सिजी" डिफेंस मे होने से उसे छुट्टीयाँ बहूत ही कम मिल रही थी. शादी के "तिन दिन" पहले तक उसका घर पर आना हुआ. तब तक हम लोगोने शादी की "फुल" तैयारी कर रखी. अचारी, बँड बाजा, घोडा, लाइटिंग, मंडप शामियाना ये सब की बुकींग हम लोगोने कर लियी थी. शादी गाँव के ही नजदिकी वाले मोहल्ले मे होने से कोई टेन्शन की बात नहीं थी. फिरभी शादी की रस्मे तो पुरी करनी ही थी. सिर्फ "बारात" ले जाने का खर्चा बचने वाला था. बाकी सब खर्चे तो हम लोगोंको करने ही पडे थे. 
              छोटे भाई "सिजी" को मै बचपन से ही अच्छा चाहता था. क्योंकी उसमे कुछ नया सोचने की और करके दिखाने की "क्षमता" मुझे दिख रही थी. मेरे सर्व्हिस कालमे "सिजी" ने "मॅथ" लेकर "हायर सेकंडरी" पास कियी थी. बादमे जल्दी से उसने मिल्ट्री सर्व्हिसेस मे नोकरी ज्वाॅईन कियी. इन सब बातो को ध्यान मे रखके ही हमने "सिजी" के लिये गाँव की लडकी पसंद कियी थी.
            "सिजी" छुट्टीयाँ लेकर जब घर आया तो उसी दिन से "चंदन चढाने" की रस्म हमे शुरू करनी पडी. उन दिनो समाज मे एक रित चली आ रही थी. शादी के पाँच दिन पहले से शादी के लडका या लडकी को "चंदन" चढाने रिस्तेदारो के घर ले जानेका रिवाज था. जो अब एक दिन की शादी का चलन आने से समाप्त हो गया है. शादी के एक दिन पहले "हल्दी मंडुवा" होने के बाद,  बारात का दिन आता है. बारात के दिन मेहमानो और गाँव समाज के लोगोंको भोजन देने की "प्रथा" थी. वह पुरा दिन "खाने खिलाने" मे ही चला गया. पाँच के बाद "अहेर" की रस्मो के बाद "दुल्हे" को सजाकर बारात निकाली जाती है. इस तरह हमने "सिजी" को "दुल्हा" बनाकर "दुल्हन के मंडुवे" मे पहूँचा दिया. वहाँ हमारे मेहमानो की आव भगत होने के बाद "दुल्हन" को  स्टेजपर लाया गया. उस जमाने मे दुल्हन को संभालने वाली दो तीन हम उम्र  (सखिया) होती थी. जिनके तरफ "दुल्हन" की देखभाली करने की जिम्मेदारी होती थी. आज की लडकीयो मे "समझदारी पुरी तरह आने से, वे पुरे आत्मविश्वास से "अपना रोल" निभाने लगी है. यह बात खुशी की भी है और प्रगत दिमाग के लक्षण की भी है. "वधु पक्ष" अपनी जिम्मेदारी को समझते हुये नये वैवाहिक जिवन मे पदार्पण करता है तो, यह बात परिवार को विकास के तरफ ले जानेवाली ही साबित होगी. इसको कभी "नकारा" नही जा सकता. इस तरह "सिजी" की शादी के, दुसरे दिन सुबह हम लोग "दुल्हा दुल्हन" को साथ लिये घर आ गये.
To be continued........
धन्यवाद. 
                                                                                                                                           श्री रामनारायणसिंह खनवे 
                                                                                                                                               परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)


             
           

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