मेरी यादें (Meri Yaden : भाग 98 (Ninety Eight) :- आरोग्य मंदिर से, मेरी घर वापसी क्यों हुयी ? (1981के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part Four) प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, आरोग्य मंदिर गोरखपूर मे मेरी मुलाकात महाराष्ट्र से आये, दो सज्जनो से हुयी. उनकी और मेरी भाषा एक जैसी होने से, हम तिनो अच्छे दोस्त बन गये थे. हम तिनो दोस्तो का दिन "साथ साथ" मे गुजरने लगा. कई विषयो पर हम तिनो चर्चा "विचार विमर्श" भी करने लगे. अब आगे की घटनाये, मेरी यादो के माध्यम से हम आगे देखेंगे. आरोग्य मंदीर मे, मेरे जैसी ही दिनचर्या, मेरे महाराष्ट्रीयन दोस्तो को भी बतायी गयी थी. हम तिनो तो, कोई खास बिमारी वाले पेशंट नही थे. इस कारण से हम लोग जल्दी से ही, आरोग्य से नाॅर्मल बन गये थे. अब हम, दुसरे लोगों पर किये जा रहे उपचारो के "अभ्यासक" बन गये थे. फिर भी हम लोगों को, हर दिन रूटीन वाले "प्राकृतिक चिकित्सा" के उपचार लेने ही पडते थे. एक दिन सुबह "मिट्टी की पट्टी और एनिमा" लेने के बाद "भाप स्नान" का उपचार लेने की मेरी बारी आयी. जिसको लेनेके बाद, मुझे बडे ही आनंद का अनुभव मिला. पेशंट को गले तक बंद पेटी मे, पंधरा मिनिट तक "गरम भाप" दियी जाती है. उस भापसे शरीर गरम होते हुये उसमे जमा, पुराना मल रूपी "विजातिय द्रव्य" "पसिने" के रूपमे निकल जाता है. इस उपचार को लेते वक्त, सिर पर थंडे पानी का "तौलिया" रखना "अनिवार्य" हो जाता है. मुझे यह सब करते हुये बडा ही आनंद मिला था. गले तक, बंद पेटी के अंदर छोडी भाप से, जल्दी ही हमारा संपूर्ण शरीर गरम हो जाता है, और बरसो का शरीर मे जमा विजातिय द्रव्य, बाहर निकलने लगता है. जिससे हमे, बडा ही हलका हलका महसूस होने लगता है और एक अलग प्रकार के, आनंद की अनुभूती मिलती है. मै खुद, इन सब अनुभवो से गुजरा हुआ हूँ. "भाप स्नान" को बार बार दोहराया नही जाता है. महिने मे एक बार लेकर भी हम लाभान्वित हो सकते है. यह उपचार, पेशंट के शरीर से विजातिय द्रव्य निकालने मे बहूत ही कारागिर सिध्द हुआ है. इस प्रकार से, "प्राकृतिक चिकित्सा" मे बताये इन उपचारो से हम "निरोगी जिवन" जी सकते है. हमारे शरीर का कायापालट हम इन उपचारो से कर सकते है.
थंडे पानी के स्नान की "महती" को हमने इसके पहले कभी नही जाना होगा. आरोग्य मंदिर मे, प्रत्येक सदस्य के लिये थंडे पानी से स्नान करना, अत्यावश्यक था. उसी तरह "मेहन स्नान" "पेडू का स्नान" "घुटनो का स्नान" इस तरह, अलग अलग "स्नानो" के उपचारो से, रोगो का इलाज किया जाता था. इस आरोग्य मंदिर मे डाॅ. लुई कुने की, थंडे पानी से उपचार करने की पध्दती का, बडी ही सरलता से रोगो पर इलाज किया जाता था. जिससे रोगी को जल्दी से आराम मिलने लगता था. भोजनालय मे हम सब को, सब्जी पानी से "पतली" पकायी हुयी, खाने मिलती थी. वह भी बिना नमक मिर्च वाली होने से, जादा खाने की इच्छा नही होती थी. रोटी मे भी नमक नही होता था. अगर किसी को नमक लग भी जाय तो, उपर से थोडे प्रमाण मे लेने के लिये हरकत नहीं होती. हम सब बगैर नमक की ही रोटी, सब्जी, दलिया खा लेते थे. इस प्रकार भोजन करते वक्त रोटी के माध्यम से, आटे की मात्रा कम हो जाती थी. दोनो समय के लिये यही सब चिजे खाते हुये, मै "हलका फुलका" बनते जा रहा था. पंधरा बिस दिनो के बाद ही, हम तिनो महाराष्ट्रीयन मित्र आरोग्य मंदिर के रवैये से अच्छी तरह वकिफ हो गये थे. वहाँ के कर्मचारी भी हमे नामो से पहचान ने लगे थे. हम एक दुसरो की पहचान बनने लगी थी.
उन दिनो, जनवरी माह की बीस तारिख चल रही थी. मै बगैर घर के लोगो के कभी अकेला नही रहा था. मुझे घर और बाल बच्चों की यादे बहूत ही सताने लगी थी. अगले पाच दिनो के बाद, "छब्बीस जनवरी" का राष्ट्रीय त्योहार आने वाला था. मै स्थानिक "नेता" और सहकारी सोसायटी का "चेअरमन" होने के नाते, कुछ बातोके लिये बाध्य् था. मेरी भी कुछ सामाजिक जिम्मेदारीयाँ थी. इस कारण महाराष्ट्रीयन मित्रोसे, मैने जब, मेरे गाँव वापिस जाने की बात कही, तो वे दोनो भी गाँव वापसी जाने को तैयार हो गये. मै जैसा सोच रहा था, वैसा ही वे दोनो भी सोच रहे थे. मेरे मिलने से उनका "धाडस" बढा. वे भी, मेरे साथ गाँव चलने तैयार हो गये. अब मेरा घर वापसी का निर्णय मजबूत और पक्का हो गया. दुसरे दिन सुबह मैने मंदिर के व्यवस्थापन से मिलकर आरोग्य मंदिर से छुट्टी करा लियी थी. "नायडू" और बाकी मित्रो से मैने, बडे ही दुःखी मन से बिदा लियी. मेरे घर वापसी से बेचारा "नायडू" बहूत ही दुःखी हुआ था. मुझे भी उसे छोड जानेका बहूत ही दुःख हुआ था. हम एक दुसरे मे बहूत ही घुलमिल गये थे. परंतु मेरे पास कुछ भी इलाज नहीं था. हम तिनो ने दोपहर मे ही आरोग्य मंदिर को दिलसे प्रणाम किया और रेल्वे स्टेशन के लिये निकाल पडे थे. शाम सात को इलाहाबाद रेलमे बैठकर हम तिनो गाँव वापसी का रास्ते निकल पडे थे.
सुबह सुबह हमारी गाडी बैतूल मे रूकी थी. मेरे उतरने का स्टेशन अब आ गया था. "गुजर देशमुख" नामके उन दोनो मित्रो से भी बिदा लेते हुये, मैने गाँव की "बस" पकड लियी. जिसने मुझे ग्यारह बजने तक घरके बाल बच्चों मे पहूँचा दिया था.
(क्रमशः)
To be continued ........
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र).
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)
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