मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 101 (One Hundred One) :- मेरे प्रिय मित्र "युके" ने लियी अचानक एगझिट : (1982-83 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part Two) प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मेरे प्रिय मित्र "युके" की शादी हो गयी है. शादी होकर एक महिना बित गया है. "युके" को घरवाली के बारेमे कुछ प्रॉब्लेम होने लगे थे. जिसे छुडाने के भरसक प्रयत्न हम लोग कर रहे थे. अब मेरी यादोंमे, आगे क्या हुआ यह अब हम जानेंगे. "युके" की घरवाली "दिमागी बिमारी" से ग्रस्त होने से उन दोनोमे कोई विशेष "बोलचाल" नही होती थी. वह दस मिनिट का काम, घंटो तक करते रहती. खुद के शरीर की और घरकी साफ सफाई पर भी कोई ध्यान नहीं देती थी. उसके साथ वार्तालाप करने के बाद किसी के भी समझमे यह बात जल्दी ही आती थी. "युके" का संबंध फिक्स करने मे मै भी था और प्रिय मित्र का दिल ना दुखे इस विचार से मै कुछ दिन चुप ही रहा. लेकीन जब "युके" ने ही यह बात उछाली. "युके" के बडे भाई को लेकर हम लडकी वालो के घर भी गये. उन्हे डिव्होर्स करा देनेका प्रस्ताव भी हम लोगोने उनको दिया. वे लोग भी मान गये थे. फिरभी उस समय, हम लोगोंको समझा बुजाकर उन लोगोने घर वापसी कर दिया.
हम लोग मन ही मन थोडे खुश भी हुये थे की, चलो, "अब आ बैल मुझे मार" मे फसी हमारी जान को छुटकारा मिलना ही है. एक एक दिन करके, दो महिने हो गये. इसी दौरान "घरवाली गर्भवती है", यह बात "युके" को पता चली. नियती का दुसरा आघात "युके" पर हुआ था. डिहोर्स देने की बात तो रही दूर, अब आगे बच्चे को और पत्नी को संभालने की चिंता ने "युके" की निंद हराम कर दियी थी. यह सब बाते, "युके" ने मुझे बतायी. और बच्चे को "भगवान की देन" मानकर उसका स्वागत करना अपना कर्तव्य है, इन सब बातो के मद्देनजर रखकर "युके" परिवार ने, "बच्चे के जन्म के बाद ही आगे का निर्णय लेनेके बारेमे निश्चित किया." मै भी उनके इस निर्णय मे संमत था. आखिर मुझे "मित्र का हित" भी देखना था. "युके" की घरवाली को उसके मायके वालो ने आराम करने के लिये, गाँव वापसी ले गये थे. अब "युके" कुछ दिनो के लिये रिलॅक्स हो गये थे. हम दोनो मित्रो का दिन "एक साथ" ही गुजरता था. मुझे भी "युके" के बिना कोई काम करने की आदत नही थी. "युके" की पोस्ट की बॅग आयी, हिसाब हुआ की, "युके" महाशय मेरे साथ कहीं भी "चलने" को तैयार रहते थे. "ना खानेकी चिंता, ना घर की चिंता". "युके" इन बातोसे बहूत दूर थे. बाहर गाँव जाने पर, हम दोनो सिधे होटल मे जाकर भरपेट नास्ता कर लेते थे. फिर बादमे काम मे भिड जाते थे. गाँव वापसी आने मे हमे कोई जलदी नहीं होती थी. कई बार तो हम दोनो पैदल चलते रात के दो तिन बजे तक गाँव पहूँचे थे. मेरे पास जब नयी हरक्युलिस सायकिल थी तब हम सायकिल से ही आना जाना करते थे. बादमे मेरे पास मोटार सायकिल आयी तब हम दोनो भी हवा से बाते करने लगे. हमारे परिवार की चालीस एकड की खेती एक ही जगह तिन कि.मि. की दुरी पर थी. फसल बोने के बाद, हम दोनो मित्र रातमे जंगली सुवरो से फसलो का रक्षण करने "जागली" करने जाते थे. साथमे चार सेल वाला टाॅर्च, रात का दोनो का भोजन, थर्मास भरके गरम चाय हम साथ मे रखते थे. हमारे खेतोमे तिन जगहो पर लकडी के मल्ले रहते थे. उन मल्लो पर से ही, हम दोनो टाॅर्च के उजाले से सुवरो और चोरो को कुछ हद तक भगाने मे कामयाब भी होते थे. "युके" ने मुझे दिया हुवा, निस्वार्थ साथ, मेरे लिये "शेरो" जैसी हिंमत और ताकद देने वाला होता था. "युके" के साथ, मैने दुनिया के किसी भी "डर" का मुकाबला किया. "युके" ने मुझे कभी हार नही मानने लगायी.
जब "युके" के घरवाली ने बेटे को जन्म दिया तो, "युके" के चेहरे पर थोडी रौनक दिखने लगी थी. मुझे भी अच्छा लगा की, चलो "युके" की वंश बेल बढने का मार्ग खुल गया है. पंधरा बिस दिनोमे ही "युके" की घरवाली को उसके मायके वालोने "युके" के पास लाकर छोडा. यहाँ आनेपर "युके" की घरवाली ऐसा कुछ "बर्ताव" कर रही थी, जैसे उसकी कोई डिलिवरी हुयी ही नही. "युके" और उनके परिवार वालोने उसे कई बार समझाया लेकिन घरवाली कुछ नही समझी. इस स्थिती मे कोई भी पथ्य करना, उसके समझ के बाहर की बात दिखने लगी थी. ( क्रमशः)
To be continued ........
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)
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