"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 97 (Ninety Seven) :- आरोग्य मंदिर गोरखपूर मे मुझे क्या विशेष देखने को मिला ? (1981 के दरम्यान की घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part Three)

           मेरी यादें  (Meri Yaden) : भाग 97 (Ninety Seven) :- आरोग्य मंदिर गोरखपूर मे मुझे क्या विशेष  देखने को मिला ? (1981 के दरम्यान की घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें)  (Part Three)
            प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हम ने देखा की, मै आरोग्य मंदिर गोरखपूर मे "प्राकृतिक चिकित्सा पध्दती का ज्ञान संवर्धन करने,  कुछ दिनो के लिये गया हुआ था. वहाँ मुझे नयी नयी बाते देखने सुनने को मिली. जिनके उपयोग माध्यम से हम जिवन मे रोगमुक्त हो सके. वहाँ के कुछ लोगों से मेरी दोस्ती भी हो गयी थी. लेकिन वहाँ की भयंकर थंड से मै बहूत ही परेशान हो गया था. जिस से बचने के लिये, लोकल मार्केट से मुझे नयी रजाई खरिदनी पडी. अब इसके बाद की घटनाओ को मेरी यादों के माध्यम से हम आगे देखेंगे. 
              मेरा रूम पार्टनर ओरिसा का "नायडू" नामक व्यक्ती था. उसे सिगारेट पिने की आदत थी. यहाँ आरोग्य मंदिर आकर उसे वह आदत  छोडनेकी इच्छा हुयी. बहूत दिनो तक, सिगारेट पिने से उसके खुनमे गडबडी आ गयी थी. एसिडिटी भी हो गयी थी. उसे गाय के ताजे दही मे आधा पानी मिलाकर पिते रहने को कहा गया था. मै वहाँ गया तो उसका यह दही पिनेका इलाज शुरू था. खाना बंद कर दिया था. बाकी इलाज सबके जैसे ही थे. दही कल्प लेते रहनेसे उसे हुये फायदे के बारेमे मैने जब उसे पुछा, तो बहूत आराम होनेकी बात उसने मुझे बतायी. उसने लाये दही को मैने भी लेकर देखा, पिने मे बडा ही आनंद मिला था. दही से शरीर का पोषण, नव निर्माण होता है. इस कारण दही को "अमृत" भी कहा गया है, यह बात मुझे "सच" ही लगी थी. 
             दोपहर के सत्रमे, वहाँ मेरी मुलाकात दो ऐसे महानुभावोसे हुयी, जिन से मिलने पर मुझे अत्यानंद हुआ. वे दोनो महाराष्ट्र से वहाँ पर "प्राकृतिक चिकित्सा" का ज्ञान संवर्धन करने के लिये आये थे. उनमे से एक सज्जन "नाशिक" से आये थे. और उन्होने अपना नाम "गुर्जर जी" बताया था. दुसरे सज्जन "देशमुख जी" नाम के पुना के पास वाले "उरळी कांचन" से आये थे. दोनो मुझ से, उम्र मे  पाच सात साल बडे लग रहे थे. संयोग से वे दोनो आपस मे "मराठी" भाषामे बात करते मुझे दिखे थे. मुझे उस समय यह देखकर आश्चर्य ही हुआ. अच्छा भी लगा. महाराष्ट्र से हजार पंधरा सौ कि.मि. दूर इस जगह पर मराठी मे बात करने वाले मुझे मिलेंगे, इस बात की शक्यता "नही" के बराबर ही थी. इस कारण मुझे उस समय अपने घरके किसी सदस्य के मिलने पर जो खुशी होती है, वैसी ही खुशी हुयी थी. और उसी कारण से उन दोनो के बारेमे आत्मियता भी हो गयी थी. मैने उन दोनो के पास जाकर मराठी मे ही "कोठून आलात" ?("कहाँ से आये हो ?") के बारेमे पुछने पर जबाब मे उन दोनो ने "महाराष्ट्र से" बताया. "मै भी वहाँ से ही हूँ " मैने यह बताने पर, उन दोनो ने भी  मेरा स्वागत किया. उस नये अनोखी जगह पर अब हम तिनो एक प्रदेश वाले, नजदिकी मित्र बन गये. क्योंकी हमारी भाषा भी एक ही थी. हम तिनो जब भी मिलते "मराठी" मे ही बातचित करते थे. वैसा करने से हम लोगोंको एक अलग ही अपनापण मिलता था. हमारे विषय, वहाँ मिलने वाले "ज्ञान की  चिकित्सा"  के बारेमे होते थे. मजा आता था. मेरा जादातर समय उन दोनो मित्रो, के साथ ही कटता था.
             नया प्रदेश, नयी जगह, नये लोग, नयी भाषा, नया ज्ञान, इन सब बातोसे मिले, नये अनुभवो से, हम तिनो को बडा ही आनंद आ रहा था. फिरभी हम तिनो, घरसे बहूत दूर होनेसे, हमे अपने अपने "बाल बच्चों" की यादे भी सताने लगी थी. फिरभी हम तिनो एक दुसरे को सहयोग करके, आये दिन को आगे आगे धकेल रहे थे.
             आरोग्य मंदीर गोरखपूर मे मुझे एक बात विशेषता से देखने मिली. दुध, दही, घी सिर्फ देशी गाय का ही, लेने के लिये व्यवस्थापन का कटाक्ष होता था. और उसकी उपलब्धता के लिये वहाँ मंदीर के साईड मे ही "गौशाला" भी बनायी गयी थी. जहाँ से संपूर्ण आरोग्य मंदीर के लोगों को दोनो समय, ताजे दुध का सप्लाय मिल सके. बाहर की भैसी के या अन्य दुध को लेने की किसी को भी अनुमती नही थी. यह इस लिये था की, वेदो, पुराणो के जमाने से देशी गाय का ही दुध मनुष्य को "नव जिवन" देने वाला और रोग निवारक सिध्द हुआ है. उसी पर निर्भर रहने मात्र से भी मनुष्य का "काया कल्प" हो सकता है. आरोग्य मंदिर की "प्राकृतिक चिकित्सा" मे देशी गाय के दुध को सम्मिलित करके तज्ञो के निर्देशन मे रोगो का सफलता से उपचार किया जाता था. इन उपचारो से रोगोपचार करते हुये मैने खुद देखे है. हमारे घरो पर, बारह महिने गायोका संवर्धन, हम उत्कृष्टता से कर सकते है. और उनसे मिले दुध के रूपमे "अमृत" से हमारा "काया कल्प" भी कर सकते है. इस तरह हम तिनो मित्रो को, हर दिन नये नये ज्ञानकी प्राप्ती हो रही थी.
(क्रमशः)
To be continued.......
धन्यवाद. 
                                                                                                                                     श्री रामनारायणसिंह खनवे 
                                                                                                                                         परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.) 

             

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