मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 99 (Ninety Nine) :- आरोग्य मंदिर गोरखपूर से गाँव वापसी आनेके बाद मुझे क्या दिखा ? (1981के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part One) प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, "छब्बिस जनवरी" का "राष्ट्रीय त्योहार" आने वाला था. आरोग्य मंदीर मे मुझे और मेरे दोनो महाराष्ट्रीयन मित्रो को घर वालों की यादें बहूत सता रही थी. आरोग्य मंदिर का रूटीन कार्य भी, हम तिनो के समझमे आ गया था. इस कारण हम तिनो महाराष्ट्रीयन मित्रो ने गाँव वापसी जाने का निर्णय लेकर अपने अपने गाँव के लिये रिटर्न हो गये थे. और अब आगे की घटनाये , मेरी यादोंके के माध्यम से, हम आगे देखेंगे. गाँवमे वापिस आने पर मुझे बडा ही अच्छा लग रहा था. घर के लोग मेरे आने से खुश हो गये थे. गाँव मे रहने वाले मेरे दोस्त और पाॅलिटीकल साथी भी, मेरी राह देख रहे थे. उन दिनो, आज के जैसे मोबाईल फोन नही थे और चिठ्ठी पत्री भी पहूँचने मे देरी होने से, घटी हुयी घटनाओ को जल्दी से पैर नही फुटते थे. वे जहाँ की तहाँ ही, रुके रहती. इस कारण, किसी भी घटना के बारे मे, वहाँ पहूँचने के बाद ही पता चलता. इसके पहले, मै जब भी गाँव वापिस आया था, बाहर मोहल्ले मे ही मुझे घर परिवार की, घटी घटनाओ के बारे मे पता चल जाता था. कई बार तो मुझे, दुःखद घटनाओ के बारेमे, घर पहूचने के पहले ही पता लग गया था. टिचर ट्रेनिंग के वक्त, मै एक बार जिले से, दिवाली की छुट्टीयाँ मनाने गाँव पहूँचा ही था. मोहल्ले के शुरू मे ही लगने वाले, "नाई" के घर से उसकी घरवाली बाहर निकली और मुझे पुछने लगी की, "तुम्हे कुछ मालूम है क्या" ? मैने कहा, "नहीं तो ?" यह सुनते ही मेरा दिल "बुरी आशंका" से एकदम धक् सा हो गया था. और दुसरे क्षण मे, उसके मुँह से निकला "तुम्हारी बडी बहन का घरवाला गुजर गया". यह सुनते ही, मेरा दिमाग सुन्न सा हो गया था. मुझे "थरथरी" छुँटने लगी थी. पैर भी डगमगाने लगे थे. बडी हिंमत से मै आगे चलते हुये घर पहूँचा. घर पहूचने पर घटना के बारेमे मैने जब घरवालो से पुछा, तो समझा की, "चिठ्ठी पत्री का क्या भरोसा? मिले, ना मिले. उससे अच्छा तो, यह है की, घर आकर ही सब बातो का पता चले." तब से ही मै, जब भी गाँव वापसी जाता हूँ, अपने आप ही, मेरे दिलमे "घबराहट" पैदा होने लगती है. इस कारण, रास्ते मे मुझे गाँव का कोई भी सदस्य मिले, मै उस व्यक्ती से घर और परिवार के बारे मे हाल हवाल पुछे बगैर नही रहता.
गोरखपूर जाने के बाद, सहकारी सोसायटी का "चेअरमन" होने के नाते मुझे उसकी चिंता थी. कारोबार बराबर चल रहा या नहीं. इसकी फिक्र होने लगती थी. मेरा स्वभाव और पारदर्शी प्रशासन लोकाभिमुख होनेसे आस पास के गाँवमे और कर्मचारी लोगोंमे मेरी "इमेज" अच्छी बन गयी थी. मेरे शब्दो को "किंमत" मिलने लगी थी. मै जो कुछ भी कहता, करता, जनता के लिये ही करता था. मैने खुद का स्वार्थ कभी नही देखा. कई बार तो मैने घर परिवार के तरफ भी दुर्लक्ष किया था. मेरे छोटे बेटे "एम" का जन्म हुआ, तब मै सोसायटी के ऑफिस मे मिटींग कर रहा था. संजोग से, गाँव का पोस्ट मॅन जब मेरे घर चिठ्ठी देने पहूँचा, तब उसे पता चला की, मेरे घर मे "बेटा" हुआ है. पोस्टमॅन मेरा फॅन था. उसने दौडकर सोसायटी मे आकर, मुझे "बेटा" होने की खबर बतायी थी. इस बात से मै बहूत खुश जरूर हुआ था. मेरे चेहरे पर रौनक भी आयी थी. लेकीन घर, मिटींग होने के बाद ही पहूँचा था. वह समय भी अजीब था. उस समय गाँवो मे, घरो मे ही बच्चों का जन्म होने का परिपाठ चलते आया था. डिलीव्हरी के कामो मे निश्नात गाँव की सुईनी के उपस्थिती मे बच्चे के जन्म देने का यह कार्य बडी बेफिक्री से पार पडता था. घर की पुरूष मंडली बेफिकीर होती थी. नये बच्चे के जन्म की "खबर" मिलने पर ही उनकी निंद टुटती थी. घर की बुजुर्ग महिलाये कभी कभी तो, रात रात भर बच्चे के जन्म की प्रतिक्षा करते रहती. और सुईनी के निर्देशन मे बच्चे का जन्म हो जाता था. बेटा होने पर ननीहाल के रिस्तेदारी मे बँड बाजे से लड्डू भिजवाने की प्रथा भी चलते आयी थी. (क्रमशः )
To be continued.........
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर (महाराष्ट्र).
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)
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