मेरी यादें ( Meri Yaden) : भाग 79 (Seventy Nine) :- पारिवारिक "होनी अनहोनी" के "चक्रव्यूह" से निकलने के लिये मुझे कौनसा निर्णय लेना पडा ? : (1975 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादे.) (Part One)
प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, मेरे परिवार मे उस समय आये दुर्दैवी 'भुचाल' से मेरी मानसिकता बहूत ही "डावाडोल" चल रही थी. रातमे निंद से उठकर चलने की बिमारी मुझे हो गयी थी. मानसिक तौर से मै बहूत ही परेशानी की हालातो से गुजर रहा था. अब आगे की घटनाओ के बारेमे, मेरी यादों के माध्यम से हम अब जानेंगे. उन दिनो की हालातो मे मेरी अवस्था "बद् से बदतर" बन गयी थी. गाँव के घर परिवार की अवस्था तो "डुबत्या चे पाय डोहात" जैसी चल रही थी. उस स्थिती मे मेरे "परिवार" को बचाना ही, मेरे लिये "आँक्सिजन" के जैसा आवश्यक हो गया था. मै "इधर को जाऊ या ऊधर को," ऐसी स्थिती से मुझे कुछ भी सुझ नहीं रहा था. नोकरी मे ट्रान्स्फर होने की संभावनाये भी, मेरे लिये समाप्त सी हो गयी थी. मेरा परिवार "समाप्ती" की "कगार" पर आ पहूँचा था. मुझे इस जिवन से "विरक्ती" सी हो गयी थी. कभी मुझे "भगवान महावीर" के जिवन प्रसंग की याद आती, तो कभी "भगवान गौतम बुद्ध" की जिवनी अपनी ओर आक्रृष्ठ करती थी. मै अकेला ही "पागलो" के जैसा पहाडो पर घुमते रहता था. इस लिये भी घुमते रहता की, हो सकता है मुझे भी कुछ "आत्म ज्ञान" की प्राप्ती हो, और मेरे जिवन का कल्याण हो जाये. ऐसा करते रहने से, आखिर मै इस निर्णय पर पहूँचा था की, मै नोकरी से इस्तिफा देकर गाँव वापिस चला जाऊ और परिवार की धुरा हातमे ले लू.
बच्चोके एग्झाम होकर रिझल्ट भी लग गये थे. धुपकाले की छुट्टीयाँ शुरू हो गयी थी. मेरे सब साथी टिचर लोगोसे मैने "मन ही मनमे" बहूत ही भावनिक तौरसे बिदाई लियी थी. उन बेचारो को, आगे के मेरे निर्णय की थोडी भी "खबर" नही थी. उन सबको "बिदा" करते हुये, मै भी उनसे "परमनंट बिदा" हो रहा था. वैसे तो नोकरी के गाँव, मैने कभी किसीसे उधार लिया नहीं था. जो कुछ पेमेंट मिल जाता उसमे महिना भर अच्छे से परीवार का गुजारा करके मै कुछ रकम भी बचा लेता था और बची हुयी रकम से मै हर माह कुछ "गोल्ड" खरिदकर रख लेता था. मै खुद "आर्थिक" बाजूसे पहलेसे ही मजबूत होनेसे मेरा "सेल्फ काॅन्फिडेन्स" उस समय बहूत ही "उच्च कोटी" का था. जो मेरे रहन सहन और पर्सनालिटी से साफ झलकता था. मेरी "दुनिया" कुछ अलग किस्म की थी. जहाँ लोगोंकी "सोच" खत्म होती, वहीं से मेरी सोच शुरू होती थी. इसी कारण, मैने लिये हुये कुछ निर्णय, मेरे हितचिंतको ने "अजिबो गरीब" ठहराये थे और हो सकता है की, भविष्यमे भी ठहरा सकते है. मै मेरे निर्णयो पर "ठाम" रहा हूँ. चाहे वर्तमानमे कुछ नुकसान भी हुआ हो. उस नुकसान को "बडे मनसे" सहते हुये भविष्य मे आने वाले "सुनहरे पलो" पर मेरी नजर रहती थी. नोकरी के गाँव वालो को आखरी का प्रणाम करते हुये, मैने मेरे मकान मालिक से सब कुछ सच बोलकर ही रजा लेना उचित समझा. जब मैने उनसे मेरा निर्णय सुनाया तो वे भी दंग रह गये. उन्हे इस निर्णय की थोडी भी कल्पना नहीं थी. बात सुनते ही उनके आँखोमे पानी आ गया और वे मेरे पैर छुने लगे. मैने उन्हे रोका. मेरे हिंमत की उन्होने दाद दियी और "लोहा" भी माना. पिछले पाच सालोमे मुझे उनसे कोई परेशानी नहीं हुयी थी. मेरी फिजिकल आदते और नैतिकता का वे आदर करते थे. उन पाँच सालो मे मैने मकान मालिक और मालकिन से कभी "ना" शब्द नहीं सुना. वे हरदम हमारी "अदब" रखते थे. इस प्रकार मै सामान साथ लिये गाँव पहूँच गया. मेरे घर वापिस आनेसे परिवार के सदस्यो मे "ढाडस" का आना संभव था. उन सबके लिये ही तो मै इस निर्णय पर पहूँच गया था. उस समय का मेरा नुकसान, उन सबके चेहरो पर आयी "मुस्कान" से कम ही लग रहा था.
गाँवमे आनेके बाद, जब तक धुपकाले की छुट्टीयाँ थी तब तक मेरे हितचिंतको के मुँह बंद रहे, लेकीन छुट्टीयाँ खत्म होने के बाद मेरी उपस्थिती कुछ लोगोंको खलने लगी. क्योंकी, मै गाँव के हितो के रक्षण की बात करने लगा था. मेरा ऐसा करना गाँव के कुछ प्रस्थापित "मान्यवरो" को पसंद नहीं था. उन सब ने एक ऐसा गृप बनाया, जिसका एक मात्र उद्देश मेरे स्वभाव और लिये गये निर्णयो के खिलाफ खडे रहना ही था. लेकिन "सच को आँच नहीं," वह "एक ना एक दिन" सामने आकर ही रहता है.
To be continued. ......
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
( प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर, कल हम फिर मिलेंगे.)
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