"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) :- भाग 75 (पचहत्तर) : भयंकर बिपदाने मेरे परिवार को फिर घेरा .... (1974 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित घटनाये.) (Part One)

              मेरी यादें (Meri Yaden) :- भाग 75 (पचहत्तर) : भयंकर  बिपदाने मेरे परिवार को फिर घेरा .... (1974 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित घटनाये.)   (Part One)

           प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, मैने टुरिंग टाॅकिज का काँट्रॅक्ट कैसे लिया और उसमे मुझे किस प्रकारके अनुभव मिले. शो के मॅनेजमेंट मे सुधार करने पर मुझे किन प्रसंगो का सामना करना पडा, इन सब घटनाओ के बारेमे हमने देखा.

अब, इसके बाद की घटनाओ को, "मेरी यादो" के माध्यम से देखने की कोशिश हम करेंगे.
             मेरे टुरिंग टाॅकिज का काँट्रॅक्ट समाप्त होने के बाद, मै नोकरी की जगह वापिस जाकर ड्युटी करने लगा. इस दौरान मुझे एक "पुत्र रत्न" की प्राप्ती हो गयी थी. मेरे घर परिवार मे इसके पहले प्रथम "कन्या रत्न" के आगमन पर आयी हुयी "निराशा" हटकर थोडी "रौनक" आ गयी थी. हमारे समाज मे "पूत्र प्राप्ती" होने पर मिठाई बाटकर खुशीयाँ मनायी जाती थी. वहीं पर "कन्या" के आगमन से किसी को कोई खुशी नही होती थी. भले ही पुत्र, अपने माता पिता और पूरे घर परिवार को नुकसान मे लाये, फिर भी कोई भी "पूत्र जन्म" के बाद स्वयं को संतोष की धनी मानते थे. इसी सोच के "कश्मकश्" ने मुझे भी बहुत दिनो तक घेरे रखा था. लेकिन आगे मेरी "परिस्थिती" ही ऐसी बनी की, सब "पुरानी सोचो" के अड॔गो को समाप्त किये बगैर, एक कदम भी आगे चल सकना, मेरे लिये कठिन कार्य हो गया. हर पल मेरे लिये "परिक्षा की घडी" होता था. हर निर्णय को "तराशकर" लेने के बगैर मेरे पास कोई भी चारा नहीं होता था. मुझे काटो पर चलकर खुदको और परिवार को बचाकर चलना पड रहा था.   
                   प्यारे पाठको, इन सब  बातोका विश्लेषण, मेरी यादों के माध्यम से, आगेके स॔स्करणो मे हम आप तक पहूँचाते रहेंगे. आप ध्यान से पढते रहिये. आपको हर संस्करण मे नये नये किस्से पढने मिलेंगे. जिसमे जिवन के रोचक तथ्य भी होंगे. जो आपको नया जिवन जिने के लिये "नयी ऊर्जा" देने का काम करते रहेंगे. अब आगे पढिये.....
              मुझे गरमी की छुट्टीयाँ लगकर दो चार ही दिन हुये थे. मै गाँव आ गया था. घर पर मेरी माताजी, बडे पिताजी और बडे भाई साहब का परिवार, मेरी बहने,  इस तरह का भरा पूरा परिवार था. बडे पिताजी घर पर ही थोडा चल फिर कर लेते थे. खाना खाने खटिया से उतरके घरमे आ जाते थे. तबियत मे ठिक ठाक लगते थे. उस समय बडे भाई साहब को, एक बेटा और एक बेटी, ऐसे दो बच्चे थे. उन दिनो "अक्षय तृतीया" का दिन हमारे परिवार के लिये बडा ही "मनहूस" निकला था. बडे भाई साहब का बेटा, पेटमे दर्द होने की बात कहकर, रोना बंद ही नहीं कर रहा था. उसे पेट दर्द हो रहा था. सुबह के सात भी नहीं बजे होंगे. गाँवो मे इतनी सुबह किसी भी डाॅ. को निंदसे जगाना सिधा काम नहीं होता था. मैने बच्चे की तबियत देखने पर, देर न लगाते, घर का "छकळा" सालदार से जोताकर मेरी मंझली माँ को बच्चे के साथमे दिया और नजदिकी गाँव के प्रायमरी हेल्थ सेंटर मे भेज दिया. जिस कारण हम परिवार के लोग थोडे निश्चिंत हो गये थे. वह "अक्षय तृतीया की अमावस्या" का दिन होने से "पितरो की पूजा" की तैयारी और उनके लिये भोजन प्रसाद की व्यवस्था हो रही थी. पूजा मे पूरण पोली, थंडे पानी की नयी सुराईया रखकर, असली घी गुड की धुप, पुर्वजो के नाम से दियी जाती थी. इस बहाने घर परिवार के सदस्यो को पुरण पोली, चिचोनी, कुरोडी, पापड, भजिये, बडे खाने को मिलते थे. हम सब ने "पितरो की पुजा" करने पर, मै बडे पिताजी को "अक्षय तृतीया का" भोजन करने बुलाने गया. दिन के ग्यारह बजे थे. धुपकाले की कडक गरमी चल रही थी. इसी कारण हमने बडे पिताजी की व्यवस्था, "गाय बछडो" के खुली हवा वाली कोठे की जगह पर कीयी थी. मैने देखा, बडे पिताजी सोते हुये दिख रहे थे. मैने उन्हे निंदसे जगाने के भरसक प्रयत्न किये. हिलाकर भी देखा. लेकिन वे नही जगे. वे "इश्वर को प्यारे" हो गये थे. मैने दु:खी होते हुये परिवार के अन्य सदस्यो को बुलाया. उन्होने भी उनको जगाने की भरसक् कोशिश कियी. परंतु कोई फरक नहीं पडा. हम लोगोंको जो समझना था वो समझमे आ गया था. परिवार मे "कोहराम" मच गया था. बडे पिताजी भी हम सब को मजधार मे छोडकर स्वर्ग को सिधार गये थे. परिवार के लिये यह तिसरी दुःखद घटना थी, जिसे घटने का किसी को भी कोई अंदाजा नहीं था. 
To be continued.....
धन्यवाद.👃👃👃👃
                                                                                                                                         श्री रामनारायणसिंह खनवे.
                                                                                                                                           परसापूर (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)





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