मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 78 (Seventy Eight) :-
पारिवारिक "होनी अनहोनी" के "चक्रव्युह" ने मुझे "भयंकर खाईमे" धकेल दिया......(1974-75 के दरम्यान की घटी, सत्य घटनाओ पर आधारित घटनाये) (Part Three)
प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मेरे गाँव परिवार से जब भी, मुझे चिठ्ठी पत्री आती, मेरी चिंता बढ जाती थी. "गाँव घर" मे चल रही घटनाओ के चिंतन से, दिनो दिन मेरी "मानसिकता का खच्चीकरण" हो रहा था. और इसके बाद, आगे की घटनाये, मेरी यादों के माध्यम से अब हम देखेंगे.
मेरे गाँव घर से जब भी मुझे चिठ्ठी आती, उसमे मेरी चिंता बढाने वाली बाते ही लिखी होती. वहां के घर हर दिन "कुछ ना कुछ" कहा सुनी होना "रूटीन" वाला काम हो गया था. हो सकता है, इसमे बाहर के लोगो का हात हो. "डुबती नैया" को बचाने वाले बहूत कम होते है. ज्यादा तर "आग" भडकाने का ही काम होता है. मेरे घरवालो के टेंशन से, मेरी परेशानी बढ रही थी. बाहर गाँव रहने के कारण, मेरा दुसरो से, चर्चा, परामर्श भी नहीं हो सकता था. सब 'व्हायरस' मेरे दिमाग के अंदर जमा हो रहे थे. उनके हल निकालने का कोई भी रास्ता मुझे नहीं दिख रहा था. मै अकेला ही शाम पाच बजने पर स्थानिक पहाडीयो के तरफ घुमने निकल पडता था. रह रहकर मुझे वही सवाल पड रहा था, जो कभी भगवद् गिता मे अर्जून को पडा था. इतना "हाय हाय" करने के बाद आखिर इस दुनिया को छोड कर मेरे पिताजी और बडे पिताजी चल बसे. फिर हम क्यों इतने "मर मर" के अपना समय बर्बाद करे. हमारा भी तो "वही" हाल होना है जो पिताजी का हुआ. इन विचारो के स॔दर्भ मे मै जितना अधिक सोचता उतना ही मै, "अंधे कुँवे" मे फसते जा रहा था. उपर आनेका कोई मार्ग मुझे सुझ नहीं रहा था.
मेरे मन पर इन बातोका बोझ इतना बढ गया था की, मै रातके वक्त निंदमे भी चलने लगा था. निंदमे दरवाजा खोलकर चलते हुये मै घरके बाहर निकल पडता था. जब मेरी निंद खुलती तब कहीं मै वापिस घर आता था. ऐसा "कई बार" मेरे साथ हुआ. निंदमे बाहर निकल जानेके मेरे डर से घर वालोने बाहर के दरवाजे मे ताला लगवाना शुर कर दिया था. इस तरह की परिस्थितीयो से तंग आकर मैने "मुख्यालय" मे ट्रान्स्फर की अर्जी कर दियी थी. परंतु समय इतना बुरा चल रहा था की, सब "हाँ "कहते, लेकीन करते कुछ नही थे. हर जगह, मेरे "स्वाभिमान" को ठेस जरूर पहूँच रही थी. मेरे परिवार की "रियल स्थिती" बयान करने के बाद भी कुछ नहीं हुआ. आये परिस्थिती से मै अंदर ही अंदर "खोकला" होते जा रहा था. उसके साथ ही जिवन को "नया टर्न" देने का विचार भी मै सोचने लगा था. सिर्फ उसके लिये जो हिंमत चाहिये थी उसे जुटाने का काम मै कर रहा था. भविष्यमे आने वाले "नये मोड" के बारेमे ही मै सोचते रहता. मेरे दिमाग मे हर वक्त "आंतरद्वंद" चलते रहता. युद्ध सी स्थिती पैदा हो गयी थी. "इधर कुँवा तो उधर खाई" मुझे लग रही थी. "इधर रहूँ तो परिवार डुबे, उधर जावूँ तो मै डुबू" इस द्वंद के मारे मै परेशान सा हो गया था. बहूतही निर्णायक स्थिती मे मै जा पहूँचा था. अनिर्णित स्थिती मे मै रहना नहीं चाहता था. जिस स्थिती से मै गुजर रहा था, उसे देखते, मै यह भी कल्पना कर रहा था की, जो लोग थोडी परेशानी आते ही "आत्महत्या" को प्रवृत्त होते है उनकी मानसिकता क्या होती होगी ? मुझे भी "इन विचारो ने" बहूत बार, घेरने की कोशिश कियी, लेकीन मेरा "मनोबल" उच्च कोटी का "प्रबल" होनेके कारण और जानबुझ के रिस्क लेने के मेरे स्वभाव ने, मुझे ऐसा करने से सक्त मना कर दिया. क्योंकी "जिवन अनमोल है", उसमे "उतार चढाव" तो आने ही वाले है. चाहे नुकसान कितना भी हो, हमारे बहुमुल्य जिवन के सामने उसकी किमत "कौडीमोल" है. "सिर सलामत तो पगडी पचास" वाली कहावत मे मुझे पुरा विश्वास है और आगे भी रहेगा.
To be continued ......
धन्यवाद. 👃👃👃👃
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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