"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 110 (एक सौ दस) :- दोनो छोटे भाईयों की शादी मैने कैसे निपटाई ? (1985 के दरम्यान घटी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part Four)

          
मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 110 (एक सौ दस) :- दोनो छोटे भाईयों की शादी मैने कैसे निपटाई ? (1985 के दरम्यान घटी सत्य  घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part Four) 

               प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हम ने देखा की, मेरे दो भाईयों मे से एक छोटे भाई, "डी" की शादी अब निपट गयी. शादी गाँव के ही "मंगल कार्यालय" से हुयी थी. मेरे बडे भाई, "डी" भाई की बारात लेकर आये थे. जिनकी आवभगत अच्छे से करते हुये, हम ने शादी की रस्मे भी निपटाई और अब हम देखेंगे, दुसरे छोटे भाई  "एम" की शादी की यादें. 
             प्यारे पाठको, आपको हमने इसके पहले, मेरे "छोटे भाई और साली" की शादी का किस्सा सुनाया है. "शादी तो उन दोनो की हुयी थी, लेकिन "लोहे के चने" मुझे चबाने पडे थे. घर पर "डी"भाई के मंडप मे, थोडा भी कुछ कम पडने पर, परिवार की नाराजी आने मे देर नहीं लगती थी. उधर "साली" के तरफ, मेरी पत्नी के संबंधित रिस्तेदार थे. उसी तरह मेरे भी "प्रतिष्ठा" का सवाल था. मै तो ऐसी "कैची" मे फंस गया था, जो मेरी जान से कब खेलेगी, इसका कोई भरोसा नहीं था. सिर्फ भगवान का ही एक सहारा मुझे था. जिसके बल से कार्य पूरा हुआ. उन दोनो की शादी होने पर ही मेरे "जान मे जान" आयी. क्योंकी मेरे लिये "इधर कुआँ, उधर खाई" और "जाये तो जाये कहाँ "वाली स्थिती होनेसे मुझे मेरी "नानी" याद आये बिना नहीं रही. सिर्फ भगवत् कृपा से, सब कुछ अच्छे से निपटने पर ही मैने चैन की सांस लियी.
              अब बची थी,  छोटे "एम" भाई की शादी. इस कार्य को मुझे ही पार कराना था.  फरक इतना था की, अब मुझे लडके की साईड ही देखनी थी. "एम" भाई  के दुल्हन का "मायका" पास के गाँव का ही था. वहाँ की देखरेख  हमारे जिजाजी (मास्टर जी) के हात मे थी.  मास्टर जी का "होना" याने "गॅरंटी" की बात ही थी. सिर्फ  "दुल्हा और बारात" लेकर ही हमे दुल्हन के घर जाना था.  सो हम  सब लोग छोटे भाई "एम" की शादी की तैयारी मे जुट गये. मेरे लिये विशेष बात यह थी की, "डी" भाई के लिये जितना कुछ मैने किया था, वैसा ही सब, छोटे भाई  "एम" के लिये भी मुझे करना था. दोनो भाईयों की हर चिज सरिखी (सेम) होने के लिये सब लोग अड रहे थे. क्योंकी मेरी ओरसे, छोटे के शादी मे पार्शालिटी हो सकती है. ऐसी गलतफहमी परिवार मे मुझे दिखने लगी था. मैने कभी भी किसी "भाई" के बारेमे ऐसी बाते सोची नही थी. ना ही कभी सोचूँगा. मैने सबको विश्वास देकर कहा की, छोटे "एम" की शादी मे वही सब होगा, जितना सब कुछ "डी" की शादी मे किया गया. तब कही सब के दिमाग से गलतफहमी  का  "भुत" निकला था.
             उस जमाने मे शादीयाँ घरो के सामने, आँगन मे हो जाती थी. और अगर लडकी की शादी हो तो "चौफुली" पर मंडप डाला जाता था. लाइटिंग और लाऊड स्पिकर  जनरेटर से चलते थे. उन दिनो गाँवोमे इले. लाइटिंग की व्यवस्था नही थी. जनरेटर अगर बंद पड जाये, तो "हल्ला" मच जाता था.  मेरी शादी के दिन मुझे याद है. "मै तो "दुल्हा" बना हुआ था." लेकिन यदी दुल्हन के मंडप मे अगर अकस्मात् अंधेरे की परिस्थिती आ जाये, तब मेरे पिताजी ने चार ग्यास बत्तीयों को जला के रखा था. और सब मेहमानो का खाना होने तक, मंडप से  हटाया भी नही था. व्वा ! "वो भी क्या दिन थे "? हमे क्या, क्या पापड बेलने पडे थे ?
             "एम" भाई की बारात बैल गाडी से गयी. क्योंकी वहाँ के लिये रास्ता कच्चा ही था. उस समय आजके जैसी पक्की सडके नही थी, और चार पहिये वाले वाहन भी नही थे. सो हम बारातीयो को बैल गाडी मे बैठकर ही जाना पडा. दुल्हन का गाँव आधे घंटे की दुरी पर ही था. वहाँ पहूँचने पर, बारातीयो को "जनवासेमे" बिठाया गया था. जहाँ पर बारातियो को चाय नास्ता दिया गया. दुल्हे के सर पर "मोर" रखकर, उसे घोडेपर बिठाकर बँड बाजेसे हम सब बाराती दुल्हन के मंडप मे पहूँचे थे. जहाँ दुल्हे की "आगोनी" हुयी. हम बारातीयो का "हार तुरोसे" स्वागत हुआ, माईक पर मंगलाष्टक पुरे हुये. "दुल्हा दुल्हन" ने एक दुसरे को फुल मालाये पहनाने की रस्म कि गयी. सब मेहमानो ने शादी लगायी. साथही सबका भोजन हुआ. बारातीयो के बैलो के लिये स्पेशल कडबी और कुटार देने का रिवाज भी चला आया था.  उसे भी दुल्हन वालोने निभाया. इस तरह, मेरे भाई "एम" की शादी " अच्छे से निपट गयी. दुसरे दिन लडकी वालो से बिदा लेने पर हम बाराती घर वापिस आये. "तिन दिनो मे हुयी तिनो की शादी, मुझे  याद दिलाकर गयी नानी और दादी." मानवी स्वभाव की इन अदभुत् छटाओ को, जिवन मे मै कभी नहीं भुल सकूंगा.        
To be continued. ......
धन्यवाद. 
                                                                                                                                  श्री रामनारायणसिंह खनवे 
                                                                                                                                      परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष नयी रोचक घटनाओ को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.) 

  


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