मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 105 (एक सौ पाँच) :- मेरी जिंदगी में आया अचानक एक नया मोड ..... (1984-85 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part One)
प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मेरे प्रिय मित्र "युके" स्वर्गवासी हो गये. उनके जाने से मेरे जिवन मे उदासीनता आनेमे देर नही लगी. मेरा एक हात मुझे छोड कर चला गया था. "दो जिस्म एक जान" वाले प्रिय मित्र की जगह लेने वाला दुसरा कोई, मुझे ढुंडने से भी नही मिल रहा था. कुछ लोगो से मेरी दोस्ती भी हुयी, लेकिन उनमे "युके" जैसी बात नही थी. अब हम देखेंगे, बादमे घटी कुछ घटनाओ के बारेमे की रोचक बाते.
"युके" का जाना, मेरे लिये बहूतही दुखदायी साबित हुआ. समस्याओ के हल ढुंडना अब मेरे लिये कठीण तम हो गया था. मेरे निर्णयो पर, टिका टिपनी करने के बाद "सही" की "मोहर" लगाने वाला विश्वसनीय मित्र, मेरे पास कोई नही बचा था. इस कारण मेरे कुछ निर्णय "गलत" भी होते जा रहे थे. भविष्य मे नुकसान दिलाने वाले निर्णयो के लेनेसे मेरी पाॅलिटीकल पाॅवर डगमगाने लगी थी. खेती की आमदनी भी बारिश के कम पडने से कम होने लगी थी. बाहर से लिये कर्जे बढते ही जा रहे थे. हर साल सिर्फ ब्याज चुकाकर "पुराने को नया करते हुये" खेती बाडी का काम मुझे चलाने पड रहा था. मै कितनी भी अच्छी मॅनेजमेंट की कोशिश करूँ, खेती मे मुनाफा होने का नाम ही नही ले रहा था. धिरे धिरे खेती बाडी के काम मे मुझे "घुटन" सी होने लगी थी. उन्ही दिनो मेरे दो छोटे भाईयो की शादी हो गयी थी. अब तक उन पर घर गृहस्थी का कोई बोज पडा नहीं था. पर अब मैने सोच लिया था की, भाई लोगोंको खेती का कार्य संभालने को देना. ऐसा करने से मुझे थोडी फुरसत भी मिलेगी और मेरे उभरते बच्चों पर ध्यान भी देते आयेगा. इधर सोसायटी मे मुझे "तिसरी बार" लोगोने चेअरमन बनाया था. सोसायटी का चेअरमन होने के नाते, हर दिन मुझे वहाँ पर कुछ घंटे देने ही पडते थे. यह मेरा रूटीन कार्य बन गया था. लोग भी मुझे सोसायटी के ऑफिस मे ही मिलने आ जाते थे. मेरा कार्य मै प्रामाणिकता से और दिलसे करते रहनेसे जनतामे भी मेरे बारेमे अच्छी सोच बनी हुयी थी. लेकीन यही बात अपोझिशन के लोगोंको खटकने लगी थी. वे कुछ ना कुछ "बवंडाल" खडा करते ही रहते. और मै उसे निरास्त करते रहता. अब यह सब करने के लिये, मेरे पास "युके" भी नही थे. "युके" की जगह पर मुझे "एसजेके" मिले थे. लेकीन "एसजेके" और "युके" की सोच मे बहूत बडा जमिन आसमान जैसा डिफरंस था. "युके" दस साल बंबई मे रहकर आये तजुर्बेकार बंबईया थे. "एसजेके" गाँव मे रहकर पाॅलिटीकल एप्रोच मे रिटायर्ड हुये थे. इसके पहले दोनोको भी साथ रखकर मैने कुछ काम किये थे. अब समय आ गया था, खुदके विवेक बुद्धीसे काम लेने का. "सुनना सबकी, करना अपने मन की". इस कहावत को नजर मे रखते हुये मै अपनी "राह" चलने लगा था.
इतना सब करते हुये, मेरे दिन आगे आगे चल रहे थे. सामने आये कार्यो को तो, मै तत्परता से कर लेता था. लेकीन "युके" के निकल जाने से पडी खाई, कई कोशिशो के बावजुद भी, भरी नही जा रही थी. इसे इश्वरी इच्छा मानकर ही मैने, आगे चलने का मन मे ठान लिया था. फिरभी लाख कोशिशो के बावजुद भी मै "युके" की छवी को दिलसे हटा नही सका.
इन्ही दिनो, "टायगर प्रोजेक्ट" मे आने वाले कई गाँव हटाये जा रहे थे. उन गाँवो से आये विस्ताफितो का रूख हमारे एरिया की जमिने खरिदने के तरफ बढने लगा था. अचानक ही हमारे खेती को खरिदने वाले मिलने लगे थे. मैने भी हमारी जमिन के बदले मे, गाँव के पास वाली जमिन को लेने की बात सोची थी. लेकीन इस बातको मेरे परिवार मे बढावा नही मिलनेसे बात आगे नही बढ सकी. विस्ताफितो को मैने कई जमिने दिलवायी. "युखेडा" नामके गाँव मे बसे विस्थापित परिवार मेरा नाम लेकर मुझे दुवाये देते रहते है. उन सब लोगोंके दिलमे आजभी मेरी जगह बनी हुयी है.
इन सब बातो के बावजुद भी मेरा मन इन कामोसे उचट सा गया था. जाने.. कहां.. गये.... वो दिन.....! इस गित की लाइने मुझे बार बार याद आने लगती थी. मै सिर्फ योग्य समय की राह देखने लगा था. दिन जा रहे थे, दिन आ रहे थे. मै भी अनमने मनसे चल रहा था. लेकीन जाना कहाँ है, यह मुझे भी समझमे नही आ रहा था. (क्रमशः)
To be continued......
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर.(महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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