मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 103 (एक सौ तिन) :- मेरी यादोंने दिलायी मुझे, मेरे बचपन के "गुरू पौर्णिमा" पर्व की यादें : ( 1955 के बाद की, घटी सत्य घटनाओ पर आधारित मेरी यादें) (Part One) प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, मेरे प्रिय मित्र "युके" की पत्नी को बेटा हुआ. लेकीन दिमागी कमजोरी के कारण हुये बिमारी से उनकी पत्नी का तिन माह के अंदर मे ही स्वर्गवास हो गया. इस घटना मेरे मित्र "युके" अंदर ही अंदर टुट से गये थे. वे मुझे हरदम चिंतित भी दिखने लगे थे. और अब इसके बाद की घटनाओ को, हम बारी बारी से आपको आगे बताते जायेंगे. आज के "गुरु पौर्णिमा" पर्व पर, मेरे बचपन की कुछ घटनाओ को हम आपके सामने पेश करना चाहेंगे.
जब मै, सात आठ साल के उम्र का था, तब से मेरे जिवनमे घटी हुयी घटनाये मुझे अच्छी तरह याद है. मै तब कक्षा पहली दुसरी मे पढता था. मेरे घरमे सब त्यौहार सबके लिये होते थे. उन त्यौहारो मे अच्छा भोजन खाने मिलता था. स्कुल को छुट्टी होती थी. इस कारण, हम बच्चे त्यौहारो की राह देखते थे. क्योंकी मिठे पक्वान जो खाने मिलते थे. लेकीन एक त्यौहार ऐसा आता था की, जिसकी स्कूल को छुट्टी भी नही मिलती और मिठे पकवान भी हमे खाने को नही मिलते थे. मेरे परिवार मे इस त्यौहार का महत्व सिर्फ मेरी "माँ" ही जानती थी. वह त्यौहार "गुरु पौर्णिमा" का होता था. उस दिन मेरी "माँ" उपवास रखती थी. "श्री दत्त" गुरू की पुजा होती थी. बाकी हम सब, बाकी दिनो जैसे खाया पिया करते थे. लेकीन मेरी "माँ" शुरू से ही "गुरू" को मानती थी. पढी लिखी कुछ भी नही होते हुये भी, उसने जिवन भर "गुरू" को माना. मेरी उसके साथ "गुरू" विषय पर कई बार चर्चा होते रहती. "बिना "गुरू" के जिवन खाली है. हर इन्सान को जिवन मे "गुरू" की आवश्यकता होती है. बिना "गुरू" किये इस दुनिया से जाना, नर्क मे जाने के समान है. उसे सदगती नहीं मिलती." इस तरह के ऊँचे विचार मुझे मेरी माँ से सुनने मिलते थे. लेकीन उनके ये विचार मेरे कुछ भी पल्ले नही पडते थे.
उन दिनो, हमारे गाँव मे "गुरू पौर्णिमा" के दिन मेरी माँ के "गुरूजी" हर साल आकर मंदीर मे ठहरते थे. मेरी माँ और उनकी साथवाली औरते शाम होने पर "गुरू पुजा" करने जाती थी. मेरी माँ गुरू के लिये नारियल और कुछ पैसे दक्षिना देने साथ ले जाती थी. जिन लोगोने उन "गुरूजी" को "गुरु" माना हो, उन्हे ही उस दिन मंदिर मे प्रवेश मिलता था. इस कारण हम सब लोग घर पर ही रहते थे. माँ अकेली "गुरू दक्षिणा" देकर नारियल प्रसाद साथ ले आती थी. प्रसाद के शिवाय हम लोगों को कुछ नही मिलता. इस तरह मेरी माँ "गुरू पौर्णिमा" पर्व पर "गुरु" का "मान सन्मान" करती थी.
मेरे परिवार के बहूतांश सदस्य ईश्वर की पुजा को मानते थे. हमारे परिवार के "कुल दैवत" भी है. परिवार के सदस्यो को "कुल दैवत" की पूजा अनिवार्य होती है. लेकीन किसी साधु या संत व्यक्ती को "गुरू" मानकर चलने की सोच हमारे परिवार मे नही थी. इसमे सिर्फ, मेरी "माँ" अपवाद थी. जिसने अपने जिवन मे "गुरु" का महत्व जानकर "गुरू" कर लिया था. इसी वास्तविक सोच का जिवन मे हम सब पालन करते है और धन्यता भी मानते है. लेकीन इसके व्यतिरिक्त भी हम सब के जिवन मे और भी बहुत से "गुरू" लोगों के स्थान होते है. हमारे प्रथम "गुरू" हमारे "माता पिता" है. बादमे स्कूल काॅलेजो मे हमे जिन अध्यापको से ज्ञान मिलता है वे सब भी हमारे "गुरूवर्य" हो जाते है. जिवन जिनेका "आदर्श" ज्ञान जिन जिन भी महानुभावोसे हमे मिलते रहता है, उन सबको हम जिवन मे गुरू का स्थान देते है. फिरभी कुछ लोग हमारे जिवनमे गुरू जैसा ही कार्य कर जाते है. जिससे हम सिधी राह चल पडते है. उन सब को भी "गुरू" का स्थान देना हमारा अनिवार्य कार्य बनता है.
To be continued.....
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, कल हम फिर मिलेंगे.Thanks.)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें