मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 72 (बहात्तर) :- मेरी लडकी को बचपन मे, मै क्यों नहीं लेता था........... (1972-73 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित घटनाये.) (Part Three)
प्यारे पाठको, पिछले भाग मे हमने देखा की, बिमारी की वजह से मेरा छोटा भाई भी स्वर्गवासी हो गया था. "पिताजी" के जाने के बाद हमारे परिवार के लिये, यह दुसरा दुःखद प्रसंग था. इन दुःखद प्रसंगने मानसिक तौर से मुझे बहूतही "तहस नहस" कर दिया था. फिर भी, उस परिस्थितीसे बाहर निकलकर मेरे परिवार के लिये मै आगे बढना चाहता था. और आगे की बाते, मेरी यादो के माध्यम से हम अब जानने की कोशिश करेंगे.
मेरी पहली लडकी का जब जन्म हुआ तो, पिताजी गाँवमे ही घर पर बिमारी की अवस्था मे थे. उनका इलाज गाँव के ही डाॅ.साहब, हमारे घर आकर कर रहे थे. उनकी "दवा गोली" से पिताजी को उतनी ही राहत मिलती, जितनी बार पिताजी दवा गोली लेते थे. उनका दिन तो अच्छा जाता, लेकिन रात उनके लिये भारी जाती थी. हर दिन के इन हालातो से पिताजी "त्रस्त" हो गये थे. पिछले दो सालोसे हमारे परिवार मे यही सब चल रहा था. आखिर उनसे यह तकलिफ "सही" नहीं जा रही, ऐसा देखकर, "बडे भाई साहब" ने उन्हे नागपूर के बडे हाॅस्पिटल मे इलाज के लिये भरती करा दिया. उनकी बिमारी के हालात मे परिवार मे जितनी भी पुरानी जमा पुंजी थी वह सब हम लोगोंके हातसे निकल गयी थी. इस कारण बादमे बडे भाई साहब, बाहर से कर्जा लेकर, पिताजी के उपचार का खर्चा चला रहे थे. यह सब चलते, दिन ब दिन, परिवार की आर्थिक हालात "बदतर" होते जा रही थी. नोकरी के कारण बाहर गाँव रहने से, मुझे बिना बताये ही घरके निर्णय लिये जा रहे थे. उनकी समझ मे "व्यावहारीक बातो के बारेमे मुझे कुछ भी जानकारी (समझ) नही थी. "किताबो" मे इन बातोको पढाया नहीं जाता. इस कारण मेरे "किताबी पढाई" उन लोगोंकी रायमे फेल थी.
मै पहले लडकी के जन्म के बाद, एक देड महिने मे ही, पत्नी को लेकर नोकरी के गाँव आ गया था. परंतु नोकरी के गाँव आने पर मेरी पत्नी "टाईफाईड" से चालीस दिन बिमार थी. बिमारी की वजहसे, मेरी पत्नी "जगह"से उठ भी नहीं सकती थी. बुखार की वजहसे डाॅ. साहब ने पत्नी का "खाना पिना" बंद कर दिया था. ऐसे स्थितीमे "नयी जन्मी लडकी" की देखभाल करना, मेरे लिये आवश्यक कर्तव्य बन गया था. परंतु उन दो सालो मे, मैने मेरे लडकी को, कभी हात लगाके भी नही देखा था. मै हरदम उससे दूरीयाँ बनाकर ही रहता था. मेरे मन की यह स्थिती नाॅर्मल नहीं थी. मै समझ रहा था. लडकी को नहलाने के लिये, पास मे ही रहने वाली बुजुर्ग महिला हमारे यहाँ आती थी. वह लडकी की देखभाल पुरी तरह से कर लेती थी. इसलिये लडकी के लिये, मै थोडा निश्चिंत था. छोटीशी "नन्ही परी" जैसी दिखने वाली, मेरी इस लडकी के प्रति, मेरा पुर्वग्रह दुषीत "रवैया" मुझे भी दिख रहा था. लेकिन इन बातोके लिये मेरा मन, मुझे साथ नहीं दे रहा था. आसपास के लोग मेरे इस "उदंडता" के लिये मेरी "चेष्टा" भी करते थे. फिरभी दो साल की उम्र होने के बाद, मैने मेरे लडकी की आदतो पर ख्याल देना शुरू किया. लडकी के प्रति मेरे कर्तव्य का पालन मै कर रहा था. मै अंदर से "भावनाशिल" प्रवृत्ती का इंसान था, लेकिन उपर से उन्ही भावनाओ का अनावश्यक प्रदर्शन करना नही चाहता था. मै फनस के जैसा, "उपरसे काटे, अंदरसे मिठा" और अनावश्यक बातो की तरफ दुर्लक्ष करने वाला मजबूत इंसान था. मेरे कर्तव्य को पूरा करने मे, मै कुछभी कसूर नही करना चाहता था. इसी कारण मुझे आत्मिक समाधान मिलता था. एकबार हम लोगोंको तेरवी के निमित्त, "रामटेक" के पहाडी पर जाना पडा था. तब मेरी लडकी, हम सबके सामने सामने, उपरकी तरफ दौड रही थी. उसे देखकर मुझे मन ही मन प्रसन्नता हो रही थी. और खुदको "कोस" भी रहा था. क्योंकी मेरे लडकी के प्रती, पिछले गलत रवैये के कारण मुझे पछतावा हो रहा था. मेरी पर्सनालीटी के स्वभाव दोषो के दर्शन से मुझे नयी दृष्टी मिली थी. मै जिवन मे सुधारना सवारना चाहता था. यही मेरी प्रामाणिक इच्छा रही थी. .......
To be continued........
धन्यवाद. ------------🙏🙏🙏🙏🙏
रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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