मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 70 (सत्तर) :-
पिताजी ने हम सबको "अलबिदा" कहते हुये पारिवारिक जिम्मेदारी को जब मुझे सौपा था ........(1972 के दरम्यान घटी हुयी घटनाओ पर आधारित घटनाये ) (Part Two)
प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, पिताजी को गाँव वापिस लाया गया था. उनकी हालतमे सुधार होना, अब किसीके भी हातमे नही था. कब क्या होगा कुछ कहा नहीं जा सकता था. आगेकी घटनाये मेरी यादो के माध्यम से अब हम देखेंगे.
पिताजी तिन चार दिन पहले से "कोमा की अवस्था" मे थे. आने जाने वालो को वे कोई प्रतिसाद नहीं दे रहे थे. मै मन पर बडा भारी बोझ लिये चल रहा था. बडे भाई साहब के हात सब कारोबार था. मै पिताजी के बिमारी से दुःखी था. "मेरे एक तरफ खाई थी तो दुसरी तरफ कुआँ था". मै जाऊ तो किधर जाऊ, मुझे कुछ सुझ नहीं रहा था. उपरसे नोकरी का टेंशन अलग था. पिताजी को बिमारी के हालात मे छोडकर जानेकी हिंमत मुझमे नहीं थी. इस कारण मैने लंबी छुट्टी डाल दियी.
मेरे परिवार मे छोटे बडे बीस लोग थे. मै नोकरी पर रहनेसे समाज मे मेरा होल्ड अच्छा खासा था. माँ और पिताजी को यह बात मालूम थी. बडे पिताजी भी मेरी बात मानते थे. इन कारणो से पुरे परिवार को नैतिक आधार देकर संभाले रखनेकी जिममेदारी अनासायास ही मुझपर आ रही थी.
मेरे पिताजी के बचपन के एक दोस्त थे. मेरी माँ के वे मुँह बोले भाई थे. उनको मै "पी मामा" कहके पुकारता था. मैने "पी मामा" को पिताजी के साथ हरदम देखा था. उनको पूरा परिवार मानता था. उनका सब पर "धाक" जैसा था. वे सबके साथ "सिधी बात" करते थे. परिवार मे कोई भी उनके सामने कुछ बोलनेकी हिंमत नहीं करते थे. "पी मामा" सच के साथ कभी समझोता नहीं करते थे. मेरे और उनके विचार एक जैसे थे. मेरा शैक्षणिक विकास होनेमे "पी मामा" का रोल बहूत जादा था. मेरे पिताजी, उनकी कोई भी समस्या का हल "पी मामा" से ही निकालते रहते थे. "पी मामा" मेरा भाषा शिक्षण का परिपाठ लेते थे. जिसे करनेसे मै बाकी बच्चों से आगे निकल जाता था. पहली दुसरी कक्षा से ही मेरे पिताजीने मुझसे पावकी, दिडकी, निमकी उसी तरह शेर, पसेरी, मन, धडे के कोष्टक पाठ लेना शुरू कर दिये थे. जिसे मै आज तक भुला नहीं हूँ. बचपन से ही मेरी रूची पढाई मे दिखनेसे पिताजी और "पी मामा" मेरे पिछे हात धोकर लगे रहते थे. पिताजी के साथ मैने खेती किरसानी जानी. फिल्मो के काँट्रॅक्ट लेना सिखा. सच्चाई के राह पर चलना सिखा. बडा दिल रखकर निर्णय लेना, माफ करते रहना सिखा. सबसे बडी बात "नेकी करना और दरियाँ मे डालने" की आदत है. जिसे मै कभी छोड नही सकता. चाहे मेरा कितना भी बडा नुकसान होता हो. मेरे पिताजी मेरे आदर्श थे. उन्होने जो पगदंडी मेरे लिये बना दियी है. उसी परसे तो मुझे मार्ग क्रमन करना है. उनकी गिरायी हुयी "पगदंडी" ने मुझे और भी ऊँचा उठनेकी तरफ इशारा किया है. जिवन की सफलता की ओर बढते रहनेका मुझे प्रोत्साहन दिया है. मनुष्य जिवनमे यह कार्य सिर्फ गुरू ही कर सकते है. मुझे "जिवन जिने की राह" सिर्फ मेरे पिताजी ने दिखाई.
मेरे पिताजी हम सबको छोडकर स्वर्गीय हो गये थे. मेरे लिये यह जिवनका "अति दुःखद" प्रसंग था. सब रिस्तेदारो के उपस्थिती मे उनका "क्रियाकर्म" पार पडा. पिताजी गाँवमे लोकप्रतिनिधी जैसे होनेसे पूरे गाँवने उस दिन दुखवटा रखकर अपने कामधंदे बंद रखे थे. पिताजी के "अलबिदा" होने के दिन की शोकाग्रता इतनी थी की "बाळगो" मे की गाये भैसे भी चारा चर नहीं सकी थी. घुँट घुँट पानी पिकर भुखी प्यासी अनमने मनसे वापिस "बाडगे" मे आकर बैठ गयी थी. इन बातोकी ओर एक मुकदर्शक बनकर देखना ही सिर्फ मेरे हातमे था.
To be continued........
धन्यवाद. -----🙏🙏🙏🙏🙏
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर (महाराष्ट्र).
( प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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