मेरी यादें (Meri Yaden) : भाग 69 (उनसत्तर) : -
" मनुष्य जिवन की सच्चाई" ने मुझे सोचने पर मजबूर किया.......(1971-72 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित घटनाये) (Part One)
प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मेरे पिताजी को अस्पताल मे मै जब उन्हे देखने अस्पताल पहूँचा. डाॅ. साहब ने पिताजी के बारेमे "कोई आशा नही" की बात मुझसे कही थी. तबसे मै "अंदर ही अंदर" "हवलसा" गया था. और नोकरी के गाँव आकर ड्युटी करने लगा. आगे की घटनाओ के बारेमे, मेरी यादो के माध्यम से, हम अब देखेंगे.
पिताजी की तबियत से, उसी तरह बडे भाई साहब के कारण मै दिनो दिन चिंतीत रहने लगा. गाँव मे घर पर कब कौनसी घटना घटेगी, इसका कोई भरोसा नहीं था. घर पर हर दिन शाम के वक्त कुछ ना कुछ "बखेडा" खडा होना, कोई बडी बात नहीं थी. यह हर दिन का नित्य काम हो गया था. इश्वर हम से पिछले जन्म के कर्म का बदला ले रहे जैसा मुझे लगने लगा. घरका मेन बुरूज थोडाभी अगर ढह जाये तो, घरको "धराशाही" होनेमे कितना समय लगेगा. यही चिंता मुझे रात दिन खाये जा रही थी. मेरे लिये मेरी "फॅमिली" ही सब कुछ थी. बचपन से ही मुझ पर "रामायण" के संस्कार हुये थे. भाई बहन माता पिता सगे संबंधी को मै दूर नहीं कर सकता था. मै संस्कारो मे बंधा हुआ था. मनही मन मे बिखरी हुयी फॅमिली की कल्पना मात्र से मै "काप" जाता था. इस तरह मेरे विचारो को टर्न मिलनेसे मेरी दिनचर्या को मै खिचे जा रहा था.
पिताजी की तबियत मे सुधार न होते दिख, उन्हे पंधरा बीस दिनोमे ही घर लाया गया. उन्हे घर आनेकी खुशी थी. परंतु बिमारी का ख्याल आते ही वे "फिर रोने लगते थे". उनकी वह अवस्था मुझसे देखे नहीं जा रही थी. छोटे भाई "सीजी" को स्कूल के लिये नोकरी के गाँव मे रखकर, पत्नी को लिये मै घर आ गया. मुझसे पिताजी को बिमारी की अवस्था मे छोडकर रहा नहीं जा रहा था. मै पिताजी के पासही बैठा रहता था. पिताजी का साथ और जिवन शिक्षण के पाठ मुझे बचपन से ही मिले थे. जिनके बलपर मेरी जिवन नैया चल रही थी. पिताजी की सेवा करते रहनेमे ही मै मेरा भाग्य समझ रहा था. ऐसा करनेसे पिताजी को कुछ थोडा भी अगर अच्छा लगे तो यही मेरे सौभाग्य मै मानता था. मेरे ससुरजी भी पिताजी को देखने नागपूर से आये थे. पासके गाँव मे रहनेवाली पिताजी की बहन, मेरी बुआ भी हमारे घर आ गयी थी. उनके आनेसे पिताजी को "समाधान" हुये जैसा दिख रहा था. धिरे धिरे उन्होने हम लोगोंसे बात करना भी बंद कर दिया था. खाना भी बंद हो गया था. सिर्फ आवाज देनेपर नजर दौडाते थे. मेरे ससुरजी ने, उन्हे देखने के बाद "तिन चार दिन" और बाकी है की बात कही तो, मै बहूतही दुःखी होकर पिताजी के बारेमे की "अनहोनी कल्पना" को सह नहीं सक रहा था. "बडे भाई साहब" ने खेती का माल बेचकर आये हुये, "नोटो का बंडल" पिताजी के हातमे देकर, "इन पैसोसे हम तुम्हे बचाही लेनेकी बात" कही. पिताजी ने बंडल हातमे ले रखा था लेकिन वे उस बंडलकी अनुपयोगिता को समझ रहे थे. उनके हातोसे बंडल धिरे धिरे उनकी छाती पर गिर पडा. उसी पैसोने उन्हे जिवनभर दौडाया था और उसी "पैसोकी क्षणभंगुरता" के तरफ आज पिताजी हमारा ध्यान खिच रहे थे. "जिवन के सत्य" को उनकी अवस्था दिखा रही थी. अगर हम उनकी अवस्था से कुछ भी सिख नहीं ले रहे तो, हमारे जैसा कोई मुर्ख नहीं होगा.
आखिर मुझे जिस बातका डर था, वही हुआ. पिताजी चल बसे. मेरे जिवन मे सबसे दुःखद प्रसंग आया था. मैने बडी हिंमतसे उस प्रसंग को पार किया. बडे भाई साहब को छोडा तो मुझसे उम्र मे सब छोटे थे. उनको ढाडस देनेके लिये मुझे बुजुर्ग बनके रहना पडा.
To be continued. .......
धन्यवाद. ------🙏🙏🙏🙏🙏
श्री रामनारायणसिंह खनवे
परसापूर.( महाराष्ट्र )
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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