मेरी यादें ( Meri Yaden)
:- भाग 74 (चौर्हात्तर)
: मुझे मिला, टूरिंग टाॅकिज के काँट्रॅक्ट का अनुभव.....
( 1973-74 के दरम्यान घटी हुयी सत्य घटनाओ पर आधारित ......( Part Two)
प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मैने टुरिंग टाॅकिज चलाने का काँट्रॅक्ट लिया है. वहाँ पर पहली पिक्चर हमने "परवाना" लगायी थी. पिक्चर के शो का कलेक्शन अच्छेसे आ रहा था. अब आगेकी घटनाओ के बारेमे, मेरी यादो के माध्यम से, हम देखेंगे.
नयी से लगायी हुयी पिक्चर का कलेक्शन हमे अच्छा मिलनेसे कुछ लोगोंकी नाराजगी साफ दिख रही थी. मैने उसे नजरॳदाज करते हुये, पिक्चर प्रिंट को लगी हुयी मेरी रकम निकलते ही, दुसरी नयी पिक्चर लगाकर उन लोगोंकी हवा निकाल दियी थी. पिक्चर थी "आन मिलो सजना". उस समय की हिट पिक्चर लगाने से शो के वक्त, दर्शको की भिड हर दिन बढते ही जा रही थी. शो का कलेक्शन रेकाॅर्ड तोड हो रहा था. मुझे छुट्टीयाॅ होने के कारण, मै खुद हर शो के वक्त हाजिर रहने से, उन लोगोंको मौका नही मिल रहा था. मेरे पिछले पिक्चर का नुकसान, पहले तिन दिनोमे ही भर के निकल गया था. आगे के चार पाच दिनोमे पिक्चर चलाकर मेरे लिये "अच्छे दिन" आने ही वाले थे. उस समय "विघ्न संतोषी" लोगोने दुसरी एक चाल चली. मेरे गाँव से चार पाच लोगोंका स्टाफ, शो के वक्त सुपरविजन करने, मै गाँव से ले जाता था. मेरी खुद की "रेंगी " जोतकर हम लोग पिक्चर के लिये जाया करते थे. इन लोगोंके सिवाय एक व्यक्ती को मैने औरभी अधिकार दिये थे. वह व्यक्तीके साथ इन लोगोंने गुपचूप "संपर्क" किया. जिसका पता मुझे पिक्चर उतरने के बाद चला. शो के वक्त पब्लिक की भिड देखते, मुझे मन ही मन बडी खुशी होती थी. परंतु कलेक्शन का हिसाब जब मेरे हात मे आता तो, मुझे चिंता करने जैसा होता था. शो का कलेक्शन "साधारण" पिक्चर जैसा मिल रहा था. इसका कारण जब मैने संबंधितोसे पुछा तो, उनसे मिले जबाब ने मुझे उस समय चुप रहना ही बेहतर लगा. "थियेटर के बाहर की भिड दर्शको की न होकर, बाहर लगाये हुये पिक्चर के बॅनर और पोस्टर्स देखने वालोकी होती है, वे लोग पोस्टर्स देखनेके बाद घर वापिस चले जाते है. भिड दर्शको की नहीं होती. फिल्म को असल मे देखने वालोका कलेक्शन हम लोगोंको मिल रहा है." उनके इस तरह के जबाबो ने मुझे उस समय चूप रहकर, इसपर कुछ नया पर्याय ढुंडने को मजबूर कर दिया.
अगले चार पाच दिनो तक पिक्चर चलाकर दुसरी (लगनेवाली) फिल्म की प्रिंट लाने के लिये, जब हमने शो के कलेक्शन का हिसाब मिलाया तो, इन बातोपर चिंतन करने लायक ही बात हो गयी थी. उन लोगोंमे से ही एक ने मेरे पास आकर मुझे एक खुफिया जानकारी दियी. उसे सुनकर मेरा "शक" सच निकला. उन सब लोगोकी एक दुसरो के साथ "मिली भगत" मे, शो का आधा कलेक्शन रफा दफा कराया जाता था. उस रकम से दुसरे दिनकी "खाने पिनेकी मौज मस्ती" होती थी. फिरभी बचे हुये आधे कलेक्शन से मुझे सौ रूपये प्रती शो की बचत हुयी थी. "जाको राखे साईया, मार सके न कोई. "इश्वरी साथने मुझे नुकसान से बचा लिया था. लेकिन अब मै सतर्क हो गया था. मेरे संपर्क मे आनेवाले हर इंसान के नितीमत्ता की "तह" को जानने की आदत मुझे तबसे ही लगी है. उसे जानकर ही मै "आगे की सोच" ठहराता हूँ. तबसे ही होनेवाले बहूतसे नुकसानोसे मै बचा भी हूँ.
अब मैने थियेटर के "बुकींग ऑफिस" मे मेरे स्टाफ के दो विश्वसनिय लोगोंको रखनेसे उन लोगोंको मौका नहीं मिला था. मेरी नजर भी वही पर लगी रहती थी. इस तरह अगले दो हप्तोमे तिन पिक्चर चलाते हुये मैने एक महिनेके लिये किया हुआ, टुरिंग टाॅकिज का काँट्रॅक्ट पुरा किया. अगले दो हप्तोमे मुझे अच्छा मुनाफा हुआ. परंतु मेरे इस "मॅनेजमेंट" ने सामने वालो की नाराजगी बढा दियी थी. मै भी परेशान हो गया और आगे की परेशानी को, मै बढाना नही चाहता था. आखिर मैने उन सब को सहयोग देने के लिये "धन्यवाद" कहते हुये उस काँट्रॅक्ट को समाप्त किया. मेरी छुट्टीया भी समाप्त हो रही थी. मेरी नोकरी भी मुझे बुला रही थी. काँट्रॅक्ट ने मेरी पर्सनालीटी को निखार दिया था.
To be continued.........
धन्यवाद. 🙏🙏🙏🙏🙏🙏 रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र )
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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