"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) :- भाग 57 (सत्तावन) : मेरी सरकारी नौकरी : (सत्य घटनाओ पर आधारित 1970 -71 के दरम्यान घटी हुयी घटनाये) (Part Two)

          मेरी यादें  (Meri Yaden) :- भाग 57 (सत्तावन) : मेरी सरकारी नौकरी : (सत्य घटनाओ पर आधारित 1970 -71 के दरम्यान घटी हुयी घटनाये) (Part Two) 
         प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मै शादी के चार दिन बाद ही, मेरे नयी नोकरी के गाँव जाकर आया. उस दिन वहां मेरा कोई "ठाव ठिकाणा" नहीं होने से मुझे "जिगरी मित्र के मित्र" के घर पर रहना पडा. आगे की घटनाओ को, मेरी यादों के माध्यम से, अब हम जानेंगे.
             मै दुसरे ही दिन, दोपहर तक गाँव वापिस लौट आया. दो दिन बाद फिर मुझे, नयी नोकरी ज्वाईन करने के लिये जाना था. इसी उधेड बून मे और जोड तोड करने मे, मै जुट गया. नोकरी के गाँव, शूरू मे लगने वाली अत्यावश्यक चिजो को साथ ले जाने के लिये, मैने पॅकिंग करना शुरू कर दिया. अजनबी जगह पर सब सामान साथ ले जाना, मैने मुनासिब नहीं समझा. क्योंकी नोकरी के गाँव, अभी मेरी रूम भी नही थी. मुझे तो सिर्फ पहनने ओढने के कपडे, बिस्तर और नहाने के लिये बकेट इ. सामान ही साथ ले जाना था. वहां जाने पर मेरा पहला काम, नयी नोकरी पर ज्वाईन होना था. बाद मे रहने के लिये किराये की रूम फिक्स कराना था. भोजन की व्यवस्था करने भोजनालय भी ढुंडना था. इस तरह का प्लॅन मैने फिक्स किया. बीस तारीख को ज्वाईन होने के लिये, उन्नीस को ही मुझे गाँव से निकलना था. सो अब फुरसत मे गाँव के सब मित्रो से मिल जुलकर और उनकी खैरियत को जानना मैने शुरू किया.
             उन्नीस तारीख को मै जल्दी ही गाँव से निकल पडा. दोपहर चार बजे, स्कूल के पास वाले बसस्टाॅप पर ही उतरना मैने मुनासिब समझा. क्योंकी मुकाम के लिये आज के हालात मे, स्कूल के सिवाय मेरे पास कोई चारा नही था. बाहर लाॅज पर रहना मेरे लिये गवारा नहीं था. किराये के रूम की व्यवस्था होने तक मुझे स्कूल के ब्लाॅक मे ही रहना आवश्यक हो गया. स्कूल के चौकीदार से मैने पुछताछ करने पर, मुकाम की बात, जब मैने उससे कही, तब चौकीदार मुझे एच. एम साहब के पास ले गया. एच. एम साहब से मेरी बात हुयी. उन्होने चौकीदार से मेरी लिये एक अच्छा सा ब्लाॅक खुलवा देने को कहा. इस तरह उस रात रहने का मेरा प्राॅब्लेम छुट गया. फिर शाम के भोजन के लिये मुझे मार्केट का चक्कर लगाना पडा. मार्केट मे स्थित "मामा भोजनालय" से शाम का खाना खाकर ही मै स्कूल वापिस सोने गया.
             दुसरा दिन "बीस जून" का था. मेरी सरकारी नोकरी का पहला दिन. जिसे मै जिंदगी भर भुल नहीं सकता. सुबह नऊ बजे ही मै स्कूल के ऑफिस मे पहूँच गया. एक "क्लार्क" आकर बैठा हुआ था. मेरे साथ नोकरी मे ज्वाईन होने के लिये और भी टिचर लोग आये थे. उन सब से मेरी नयी पहचान हो रही थी. थोडी देर मे ही "बडे बाबू" आ गये. नये से आने वाले हम सब टिचर लोगोने उनसे ज्वाईनिंग रिपोर्ट लेने के लिये कहा. "बडे बाबू" थोडे समझदार किस्मके इंसान थे. उन्होने एच. एम साहब को रिपोर्ट देने के लिये कहा. क्योंकी सबका पहला दिन था.  साहब का "मान सन्मान" रखने के लिये यह बात आवश्यक भी थी. साहब के सामने सबको अपना परिचय देना था. सो हमे और थोडी देर रूकना पडा. ग्यारह बजने से पहले तक एच. एम साहब भी ऑफिस मे पहूँच गये थे. सब "नये टिचर" लोगोने  उनसे अपनी अपनी रिपोर्ट के साथ परिचय भी दिया. एच. एम साहब ने खुश होते हुये चाय से हम सबका स्वागत किया और हमारे "भावी जिवन" के लिये "शुभ कामनाये" भी दियी. स्कूल खुलने का पहला दिन होने से बच्चे कम ही आये हुये थे. बहूत से बच्चे बाहर गाँव के होने से स्कूल नहीं आ सके थे. आसपास के गाँव, शहरी सभ्यता से कोसो दूर मालूम पड रहे थे. हम सब नये लोगोंने, अपनी अपनी क्लास मे जाकर बच्चों से परिचय कराना ही मुनासिब समझा था. इस तरह हम सबका नयी नोकरी का पहला दिन बिता था. जिसे हम कभी भुलना ही नही चाहेंगे.                 
                 दोपहर मे, उन्ही "नये मित्रो" को लेकर मै "धारनी" गाँव मे रूम देखने चला गया. वहाँ की किराये पर दिये जाने वाली सब रूमे "अस्थायी" रूप मे बनायी गयी थी. दिवाले बास के तट्टेकी, उपर मिट्टीसे लिपी हुयी, छप्पर कवेलू वाला. बाथ रूम लॅट्रीन का कहीं भी पता नही था. सिर्फ लाईट थे. पिने का पानी चौफूली के नल से लेना था. मुझे किसी भी रूम को फिक्स करने का मन नही हो रहा था और असहय लग रहा था. परंतु आज, अभी के लिये, मेरे पास दुसरा कोई, चारा नहीं था. मुझे कुछ तो व्यवस्था करनी आवश्यक थी. इस कारण, मैने मन को सांत्वना देते हुये, पोस्ट ऑफिस के पास मे की, महिना पचीस रू. किराये पर, मेरे लिये रूम फिक्स कर लियी. मकान मालिक को एडव्हांस देते हुये, रूम की साफ सफाई कराने के लिये भी कह दिया. उस दिन रात का मुकाम, मुझे फिर स्कूल मे ही करना पडा. शाम का भोजन फिर "मामा भोजनालय" मे जाकर करना पडा. अब रात मे मेरे और भी "साथी" टिचर लोग, मुकाम करने स्कूल मे आ गये. उनके साथ मे, वहाँ की रात मुझे हलके मे गयी थी. दुसरे दिन तो मुझे किसीभी हालात मे, अपनेवाले रूम मे शिफ्ट होना ही था. इन सुखद सपनो ने, मेरा दिन कब निकाला, इसका मुझे पता ही नही चला.
                                                                      To be continued......
धन्यवाद. 
  श्री रामनारायणसिंह खनवे.
    परसापूर. (महाराष्ट्र)🙏🙏🙏
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
             

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