मेरी यादें (Meri Yaden) :- भाग 52 (बावन्न) : मेरी शादी ( सत्य घटनाओ पर आधारित 1970 मे घटी घटनाये) ( Part One)
प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मैने नोकरी से रिजाइन कर दिया है. मेरी शादी बारा जुन को होनी थी. मैने पसंद किये हुये लडकी के रिस्तेदार शादी की तैयारी करने के लिये नागपूर चले गये थे. अब आगे घटी घटनाओ को हम मेरी यादों के माध्यम से देखेंगे .
मेरी शादी "जुन माह" मे होने वाली थी. मेरे घर के सब लोग शादी की तैयारी करने मे जुट गये थे. मै भी उनके कामो मे हात बटा लेता था. उन दिनो मई महिने से ही बरसात होना शुरू हो गयी थी. खेती किरसानी वाले लोगोने बोआई के काम शुरू कर दिये थे. उन दिनो मै इश्वर से मन ही मनमे प्रार्थना भी कर रहा था की, हे प्रभू, कम से कम मेरे शादी के दिन मे मत आना. इतनी मेहरबानी करना. और जब शादी का दिन आया, तब सच मे ही उस दिन, जैसे बरसात ठहर सी गयी थी. सिर्फ मौसम थंडा बन गया था और गलीयो मे किचड भी भर गया था.
हमारे लोगोमे उन दिनो शादी पाच दिनो तक चलते रहती थी. शादी के पाच दिन पहले से ही दुल्हा या दुल्हन को "चंदन" चढाने की प्रथा चली आयी थी. चंदन चढाने के लिये रिस्तेदारो के यहां ले जाना होता था. मुझे भी पाच दिन पहले से ही "चंदन" चढाना शुरू हो गया था. तबसे ही मुझे बाहर जाने की मनाई हो गयी थी. मेरी शादी बारा जुन को होनी थी. उसके एक दिन पहले ही दुल्हा दुल्हन के घरो पर "मंडवा" डाला गया था. "मंडवा" डालने समाज के सब घरोके सदस्य शादी वाले घर आकर "जामून की हरी डालीयो" का "मंडवा" बनाते थे. उसी "हरे मंडवे" मे दुसरे दिन दुल्हा सजाया जाता था. उस समय, मेरे घर भी "हरा मंडवा" डाला गया था. "हरे मंडवे" मे ही मुझे "हल्दी" भी चढायी गयी थी और सजाकर "दुल्हा" बनाया गया था. उन दिनो, दुल्हे को पँट शर्ट या शेरवानी ऐसा कुछ पहनने की प्रथा हम लोगोंमे नही थी. मैने "धोती कुर्ता" और उपर से मेरे पिताजी का "कोट" पहन लिया था. क्योंकी एक दिन के लिये कोई भी "दुल्हा" कोट नही शिलवाता था. "नये कोट" को शिलवाना फिजुल खर्ची समझी जाती थी. उपर दुल्हे के सरपर "फेटा" बांधे जाता था. मुझे भी "फेटा" बांधने पडा था. "फेटे" के उपर "शिंदी की पानोली" से बनाये गये "टोप" को पहना दिया गया था. उसे "मोर" कहते धे. इतना सब ताम झाम लेकर "दुल्हन" के घर जाना और शादी करके दुसरे दिन सुबह मे "दुल्हन" को साथ लेकर मुझे वापिस लौट आना था.
"दुल्हन" का गाँव मेरे गाँव से तीन कि.मि. दुरी पर था. उस गाँव को जाने के लिये पक्का रास्ता भी नही था और कोई मोटार वाहन भी थे नही. इस कारण मुझे बैलोसे चलने वाली "दमनी" मे बैठकर "दुल्हन" के गाँव जाना पडा था. बाकी "बाराती" बैल गाडीयो मे बैठकर आये थे. "बँड बाजे" वालो को तो पैदल ही आना पडा था. उस जमाने मे दुल्हा "गॅस बत्ती" के उजाले मे "बँड बाजा बारातीयो" के साथ "दुल्हन" के मंडप मे जाया करता था. मैने भी उन पिछली बातो का अनुकरन करते हुये सामाजिक प्रथा का पालन करने मे ही अपनी भलाई समझी थी. उस जमाने मे "दुल्हन" के घर के सामने, "गली" मे ही शादी का मंडप तैयार किया जाता था. परंतु मेरे शादी के दिन "बरसात का मौसम" रहने के कारण "चौफूली" पर ही शादी का मंडप डाला गया था. निचे जमिन पर गेहूं का भुसा वगैरा फैलाकर किचड को सुखा दिया था. जिस से मंडप मे चलने फिरने मे कोई दिक्कत नहीं हो रही थी. उन दिनो उस गाँव मे इलेक्ट्रिक लाइट नहीं थे. उजाले के लिये लडकी वालो ने "जनरेटर" लगा रखा था. जनरेटर से चलने वाले उन "ट्युब लाईटो" के झकास सफेद उजाले मे ऐसा लगता था, मानो जैसे दिन निकल आया हो. "मिट्टी तेल के दिये" और "कंदिलो" के उजाले के मुकाबले "जनरेटर के लाईट" मे एक अनोखा मजा आता था. आनंद मिलता था.
To be continued.........
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)🙏🙏🙏
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे. )
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